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________________ 1086 नैषधमहाकाव्यम् / स्वदुहितुः पाणिग्रहणमापद्येत, अतः सर्वसम्मतिदर्शनात् परलोकोऽङ्गीकर्तव्य एक भवतेति भावः // 98 // ( उक्त बहुसम्मतिको ही प्रदर्शित करते हैं-) अपनी कन्याको दूसरे अर्थात् वरको देने के लिए सबों ( वेद-रमृति-पुराणों तथा लोगों ) के सम्मतिको देखे (तथा वैसा ही करते ) हुए किस व्यक्तिका मन परलोकके विषयमें निश्चल नहीं होता है ? अर्थात् समीका-तुम्हारा भी-होता है / [ यदि कन्याको वर के लिए देनेका सर्वसम्मत विधान अभीष्ट नहीं होता तो संसार में कोई भी व्यक्ति उसे दूसरेके लिए न देकर उसके साथ रवयं विवाह कर लेता, परन्तु ऐसा कोई एक भी- यहां तक कि परलोक को नहीं माननेवाले तुम (नास्तिक ) भी-नहीं करते हो, अत एव मानना पड़ता है कि सर्वसम्मत परलोक है, इस कारण तुम्हें दुराग्रह छोड़कर उस पर लोकको स्वीकार करना ही चाहिये ] // 98 // कस्मिन्नपि मते सत्ये हताः सर्वमतत्यजः / तदृष्टया व्यर्थतामात्रमनर्थस्तु न धर्मजः || 66 || ननु नास्तिकानामिह तावत् सुखं सिद्धम् , आस्तिकानान्तु तन्नास्ति, आमुष्मिकन्तु सन्दिग्धं तथा च वृथाऽनुष्ठानक्लेश इति कुतो दाढयमित्यत्राह-कस्मिन्नपीति / कस्मिन्नपि आस्तिकमतमध्ये कस्मिंश्चिदपि, मते कन्यादानविधिमातृगमननिषेधादि. रूपे परलोकसाधकमते, सत्ये प्रकाणवेनाङ्गीकृते सति, सर्वमतत्यजः, परस्परविरोधात् सर्वमप्रमाणमित्यादिरीत्या सर्वास्तिकमतत्याजिनः, नास्तिका इति शेषः / हताः विनष्टाः, परलोकभ्रष्टा इति यावत् / स्युः भवेयुः। यदि परलोकः स्यात् तदा सर्वास्तिकमतत्यागेन यूयं पारलौकिक सुखास्वादादिभ्यो वञ्चिता भवेतेति भावः। तदृष्ट्या सर्वास्तिकमताप्रामाण्यदर्शनेन तु, व्यर्थतामात्रम् अनुष्ठानवैयर्थ्यमेव, यदि परलोकसाधकं सर्वास्तिकमतमप्रमाणं स्यात् तदाऽस्माकं यागाद्यनुष्ठानस्य निष्फलत्वमात्रं न तु ततः किञ्चिदनिष्टं भवेदिति भावः / कुतो नानिष्टमित्यत आहअनर्थ इति / धर्मजः धर्मोपचारजन्यः, धमानुष्ठानजन्य इति यावत् / अनर्थः विपत्तिस्तु, परलोकभ्रंशरूपः अनिष्टव्यापारस्तु इत्यर्थः। न नास्त्येव, परलोकासत्वपोऽस्माकं धर्मानुष्ठानजन्यः न कश्चिदनः, परलोकसत्त्वपक्षे तु युप्माकं धर्माननुटानेन परलोकभ्रंशरूपः अनर्थ इत्यपि बोद्धव्यम् , एतच्च पाक्षिकत्वमभ्युपेत्योक्तम् / परमार्थतरतु आस्तिकमतमेव ग्राह्यम् इति भावः // 99 // ( अब दो ( 17.99-100 ) श्लोकोंसे 'श्रुतिस्मृत्यर्थ-( 17 / 50)' तथा 'तर्काप्रतिष्ठया (17 / 78 )' इत्यादि आक्षेपोंका उत्तर देते हैं आस्तिक मतोंमें-से ) किसी भी मत ( 'कन्याको दूसरे के लिए दान देना चाहिये' इस विधिपरक तथा 'माताके साथ सम्भोग नहीं करना चाहिये' इस निषेधपरक वेदाधुक्त परलोकसाधक आस्तिक-सिद्धान्त) को सत्य मान लेनेपर परस्पर विरुद्ध होनेसे सब मतका त्याग करनेवाले नास्तिक लोग मारे गये अर्थात् परलोकसे भ्रष्ट हो गये। उस दृष्टिसे अर्थात् सब आस्तिक मतोंको प्रमाण नहीं
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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