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________________ 1034 नैषधमहाकाव्यम् / इस सृष्टि समस्त संसारको व्याकुल (पक्षा०-अपने वशीभूत ) करता हुआ वर्तमान है। शिवजीने जिसे स्त्री किया, कामदेव उसे अस्त्री (स्त्री-भिन्न ) करके उनके प्रति स्पर्धा कर रहा है, यहाँ स्त्रीको स्त्रीभिन्न करना विरोध है, उसका परिहार 'कामदेव स्त्रीको अस्त्र बनाया है। ऐसे अर्थसे करना चाहिये। अथवा-त्रिपुरासुरके वधके समय शिवजीने भी मोहिनी-रूपधारी विष्णु को अस्त्र बनाया था, उसी प्रकार यहाँ कामदेव मी स्त्रियोंको अस्त्र बनाकर शिवजीके प्रति स्पर्धा (समानता) कर रहा है। [इस शिवजीने मुझे भस्मकर अनङ्गतक बना दिया, अतः मैं इनकी कोई क्षति करने में समर्थ नहीं होनेसे इनकी बनायी हुई सृष्टि समस्त संसारको ही पीडितकर बदला चुका लूं ऐसी भावनासे कामदेव संसारको स्त्री. रूपी शस्त्रसे पीडित कर रहा है। लोकमें भी यदि कोई प्रबल शत्रुसे बदला नहीं चुका सकता तो उसके आश्रितोंसे ही बदला चुकाकर आत्मसन्तोष करता है ] // 17 // चक्रे शकादिनेत्राणां स्मरः पीतनलश्रियाम् / / अपि देवतवैद्याभ्यामचिकित्स्यमरोचकम् // 18 // चक्रे इति / स्मरः कामः, पीतनलश्रियां पानविषयीकृतनलकान्तीनां, साक्षात्कृत. नलसौन्दर्याणामित्यर्थः / शक्रादिनेत्राणाम् इन्द्रादिचक्षुषां, देवतवैद्याभ्याम् अश्विनीकुमाराभ्यामपि, अचिकित्स्यं चिकित्सितुम् अशक्यं, न 'रोचयते इति अरोचकं रोगविशेष, चक्रे जनयामास, नलरूपदर्शिभ्यः तेभ्यः स्मररूपं न अरोचत . इत्यर्थः / स्मरादपि रमणीयो नल इति भावः // 18 // कामदेवने नलकी.शोभाका पान किये हुए अर्थात नलकी शरीरशोभाको अच्छी तरह देखे हुए इन्द्रादिके नेत्रोंका 'अश्विनीकुमार' नामक स्वर्वैद्योंसे भी अचिकित्स्य (जिसकी चिकित्सा नहीं की जा सके ऐसा अर्थात् ला-इलाज) अरोचक (रुचिका अभाव अथवानहीं रुचने वाला रोग-विशेष ) कर दिया। [ कामकी अपेक्षा अतिशय सुन्दर नलको देख. कर लौटते हुए इन्द्रादि देवको नलापेक्षा हीन सौन्दर्यवाले कामदेवको देखकर प्रीति नहीं हुई / 'केवल कामदेवसे ही नल अधिक सुन्दर नहीं थे, किन्तु अश्विनीकुमारसे भी अधिक सुन्दर थे' यह भी ध्वनित होता है। कामदेवको देखकर भी इन्द्रादिदेव रुके नहीं और आगे चल दिये / लोकमें भी अतिशय सुन्दर वस्तु देखने के उपरान्त उससे हीन वस्तुको देखनेकी रुचि नहीं हुआ करती है ] // 18 // यत्तत् क्षिपन्तमुत्कम्पमुत्थायुकमथारुणम् / बुबुधुर्विबुधाः क्रोधमाक्रोशाक्रोशंघोषणम् // 16 // यदिति / अथ स्मरदर्शनानन्तरं, विबुधाः देवाः, यत्तत् यत्किञ्चित् लोष्टादिकं वस्तु इत्यर्थः / क्षिपन्तं दूरात् मुञ्चन्तं, परप्रहाराय इति भावः। उत्कम्पं कम्पितं, क्रोधावेगेन कम्पनस्य स्वाभाविकत्वादिति भावः / उत्थायुकं युद्धार्थम् उल्लम्फयन्तम्, १.'-दुश्चिकित्स्य-' इति पाठान्तरम्। 2. '-क्रोशभूषणम्' इति पाठान्तरम् /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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