________________ सप्तदशः सर्गः। 1035 आक्रोशंक्रोशपरिमितदूरपर्यन्तं क्रोशमभिव्याप्य वा, आक्रोशस्य परनिन्दावादसहित. तिरस्कारस्य, घोषणा उच्चैरुच्चारणं यस्य तादृशम् , उच्चैः तर्जनसहकारेण परनिन्दा ददृशुः इत्यर्थः, निरुक्तचिह्वरयं क्रोध इति अवगतवन्तः इति तात्पर्यम् / बुधौवा. दिकालट // 19 // विबुधों (इन्द्रादि देवों, पक्षा०-विशिष्ट विद्वानों) ने जो कुछ (पत्थर, ढेला, काष्ठ आदि ) भी फेंकते हुए, कम्पित होते हुए, लड़ने के लिये तैयार ( खड़े उठे) हुए, ( क्रोधसे ) रक्त वर्ण और कोशों दूरतक पहुँचने वाले उच्च स्वरसे परनिन्दाको चिल्लाते हए ( पाठा०-- ... परनिन्दारूप भूषण वाले ) क्रोधको पहचाना। [ क्रोधी का उपर्युक्त स्वभाव होनेसे देवोंने 'यह क्रोध है' पहचाना ] // 19 // यमुपासत दन्तौष्पक्षतामृशिष्यचक्षुषः / भृकुटीफणिनीनादनिभनिःश्वासफूत्कृताः // 20 // यमिति / य क्रोध, दन्तैः ओष्ठस्य क्षतेन दंशनजवणेन, यत् असृक् रक्तं, तच्छिज्याणि तत्कल्पानि इत्यर्थः, चक्षि नेत्राणि येषां तादृशाः,भ्रकुटी एव भ्रसकोचनमेव, फणिनौ भुजङ्गी, तन्नादनिभानि तत्फूत्कारकल्पानि, निःश्वासफूत्कृतानि निःश्वासस्य फूत् इति प्रबलशब्दा येषां तादृशाः, परिजनाः इति शेषः, उपासत असेवत, आसेलुङ / तत्सेवका अपि ताशा एवेत्यर्थः // 20 // दांत से ओठ कटने पर उत्पन्न रक्तके समान नेत्रवाले तथा भ्रुकुटी (का सञ्चालन अर्थात् सङ्कुचित करना तथा फेंकना) रूपिणी सर्पिणीकी ध्वनि ( फुफकार) के समान श्वाससे फुफकार करते हुए व्यक्ति जिस ( क्रोध ) की उपासना करते थे ( 'उस क्रोधको देवोंने पहचाना' ऐसा पूर्व (17 / 19) श्लोकसे सम्बन्ध समझना चाहिये)। [ क्रोधमें दांतोंसे ओष्ठ का काटना नेत्रोंका रक्ततुल्य लाल होना, भृकुटी का बार-बार चढ़ना एवं सङ्कुचित होना तथा सर्पिणीके समान गर्म-गर्म फुत्कारयुक्त श्वास चलना स्वभाव होता है। उस क्रोधके परिजन भी वैसे ही थे] // 20 // दुर्ग कामाशुगेनापि दुर्लङ्घयमवलम्ब्य यः / दुर्वासोहृदयं लोकान् सेन्द्रानपि दिधक्षति / / 21 // दुर्गमिति / यः क्रोधः, कामाशुगेन कन्दर्पबाणेन अपि, दुर्लङ्गयं दुरतिक्रमम् , अजेयमित्यर्थः / दुर्वाससः तदाख्यस्य अतिक्रोधिनः मुनेः हृदयं चित्तम् एव, दुर्ग कोट्टम् , अवलम्ब आश्रित्य, सेन्द्रान् इन्द्रादिदेवतासहितानपि, लोकान् भुवनानि, त्रैलोक्यमित्यर्थः, दिधक्षति शापाग्निना दग्धुमिच्छति / दहतेः सनन्ताल्लटि ढत्वकत्व. भावाः / दुर्लङ्घयदुर्गावलम्बनो दुर्जेय इति भावः / नित्यक्रुद्धो भगवान् दुर्वासा दुईर्षश्चेति प्रसिद्धम् // 21 // 65 नै० उ०