________________ 1036 नैषधमहाकाव्यम् / __ जो ( क्रोध ) कामबाणसे भी दुर्लङ्घय अर्थात् दुर्जय ( अतएव ) दुर्ग (किला, पक्षादुःखसे गम्य ) दुर्वासा मुनिके हृदय का अवलम्बनकर इन्द्रके साथ रसिकोंको भी जलानेकी इच्छा करता है। [ सदा क्रोधपूर्ण दुर्वासा मुनि शापसे इन्द्र सहित सब संसार को जलाने की जिस प्रकार इच्छा करते थे, उसी प्रकार यह क्रोध भी इच्छा करता है। पर्वतादि से दुर्गम भूमि ( या-किला ) बाणोंसे भी अजेय होती है ] // 21 // वैराग्यं यः करोत्युच्चै रञ्जनं जनयन्नपि। सूते सर्वेन्द्रियाच्छादि प्रज्वलन्नपि यस्तमः // 22 // वैराग्यमिति / यः क्रोधः, उच्चैः अत्यर्थ, रञ्जनं रागं, रक्तवर्णतामिति यावत् / जनयन् अपि उत्पादयन्नपि, वैराग्यं तदाहित्यं, करोति जनयतीति विरोधः, नैस्पृह्यं करोतीति तदाभासीकरणात् विरोधाभासोऽलङ्कारः, क्रुद्धस्य न कुत्रापि अनुरागाः इति भावः, तथा यः क्रोधः, प्रज्वलन् सन्धुत्तमाणोऽपि, प्रकाशमानः अपि इत्यर्थः, अन्तः.सन्तापयन्नपि इत्यर्थश्च, सर्वेन्द्रियाणि चतुरादीनि ज्ञानेन्द्रियाणि आच्छादयतीति तदाच्छादि सर्वेन्द्रियवरकं, ज्ञानेन्द्रियाणामावरकमित्यर्थः, तमः मोहम् अन्धकारञ्च, सूते जनयति क्रोधान्धो न किञ्चित् पश्यतीति भावः / अत्र प्रज्वलत्तमः शब्दयोः अर्थभेदेन विरोधपरिहारान् पूर्ववदलङ्कारः // 22 // जो (क्रोध ) अत्यधिक लालिमाको पैदा करता हुआ भी वैराग्य अर्थात् रंग (लालिमा) का अमाव पैदा करता है तथा जो ( क्रोध ) प्रज्वलित ( प्रकाशित ) होता हुआ भी सम्पूर्ण इन्द्रियों ( नेत्रादि ) को आच्छादित करनेवाले अन्धकारको पैदा करता है / यहां 'लालिमाको पैदा करनेवाला उसके अभावको कैसे पैदा करेगा ? तथाप्रज्वलित होता हुआ नेत्रादिकी शक्तिको रोकनेवाले अन्धकारको कैसे पैदा करेगा ?' यह विरोध हुआ, उसका परिहार यह है कि-जो ( क्रोध ) मुख नेत्र आदिमें लालिमाको पैदा करता हुआ अर्थात् मुखनेत्रादिको लाल करता हुआ भी उद्वेग ( या निःस्पृहता ) पैदा करता है तथा प्रज्वलित होता अर्थात् अतिशय बढ़ता हुआ भी सब (बाहरी नेत्रादि तथा भीतरी ज्ञान ) इन्द्रियोंको आच्छादित करनेवाले अज्ञानको पैदा करता है / ( अथवा-जो क्रोध हिंसादि कार्यमें प्रीति पैदा करता हुआ भी ( अनिष्टोत्पादनके पश्चात्तापसे प्रायश्चित्त का कारणभूत ) वैराग्यको करता है तथा...)। [क्रोधसे मुख-नेत्रका लाल होना तथा उसके बढ़नेसे केवल नेत्रादिका ही नहीं, अपि तु ज्ञानतक का आच्छादित ( शक्तिहीन ) हो जाना सर्वविदित है। आशय यह हैं किक्रुद्धको कहीं भी अनुराग नहीं होता तथा क्रोधसे अन्धा कुछ भी देखता (या समझता ) नहीं हैं ] // 22 // पञ्चेषुविजयासक्तौ भवस्य क्रुध्यतो जयात् / येनान्यविगृहीतारिजयकालनयः श्रितः / / 23 // १.'-शक्त्यौ ' इति पाठान्तरम् /