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________________ सप्तदशः सर्गः। 1037 पञ्चेष्विति / येन क्रोधेन, पञ्चेषु विजयासक्तौ पञ्चेषु विजये कन्दपंपराभवे, या आसक्तिः तत्परता तस्यां, कन्दर्पभस्मीकरणाभिनिवेशे, क्रुध्यतः स्मराय कुप्यतः, भवस्य हरस्य कर्मणि षष्ठी। जयात् स्वाधीनीकरणात् हेतोः, अन्येन पुरुषान्तरेण, विगृहीतस्य आक्रान्तस्य, अरेः शत्रोः, जयकाले आयत्तीकरणसमये, यो नयः नीतिः सः, श्रितः अवलम्बितः, तत्कालोचिता नीतिराश्रिता इत्यर्थः / अन्यदा महादेवं जेतमशक्योऽपि स्मरविग्रहकाले स्मरहरं क्रोधो जिगाय तत्काले तस्य क्रोधवशीभूतस्वादिति भावः / अत्र कामन्दकः-'बलिना विगृहीतस्य द्विषता कृच्छ्रवर्तिनः / कुर्व. ताऽपचयं शत्रोरात्मच्छित्तिविशङ्कया // ' इति // 23 // जिस (क्रोध ) ने कामदेवके विजयमें संलग्न होने पर क्रुद्ध शिवजीको अपने वशमें करनेसे दूसरेके साथ युद्ध करते हुए शत्रुको विजय करने के अवसरकी नीतिको ग्रहण किया। [ 'जिस शत्रुको दूसरे समय में नहीं जीता जा सकता, तो जब वह किसी दूसरे शत्रुसे युद्ध करता हो उस समय उसे जीता जा सकता है। इस नीतिके अनुसार शिवजीको कभी भी नहीं जीत सकनेवाले क्रोधने जब वे (शिवजी ) कामदेवको विजय करने ( जलाने ) में आसक्त हुए तब उपयुक्त अवसर देखकर उनको जीत लिया अर्थात् उन्हें अपने अधीन कर लिया। जिसने शिवजीको भी अवसर पाकर हराकर अपने वशमें कर लिया, उस क्रोधके पराक्रम का फिर क्या कहना है ? // 23 // हस्तौ विस्तारयन्निभ्ये बिभ्यदर्द्धपथस्थवाक् / सूचयन् काकुमाकूतैर्लोभस्तत्र व्यलोकि तैः / / 24 / / हस्ताविति / तत्र जनौधे, तैः इन्द्रादिभिः, इभ्ये धनिके 'इभ्य आढयो धनी स्वामी' इत्यमरः / हस्तौ करो, विस्तारयन् प्रसारयन् , याञामुद्रया इति भावः। बिभ्यत् अयं कटूक्तिं करिष्यति न वेति स्यन् , अत एव अर्द्धपथस्थवाक् अोक्तवाक्यः, आफूतैः अभिप्रायविशेषैः, आत्मनो दैन्यज्ञापकचेष्टाविशेषरित्यर्थः। काकं शोकभीत्यादिजनितां स्वरविकृति, सूचयन् कुर्वन्नित्यर्थः, भयेन गद्दाभाषीत्यर्थः, लोभः विग्रहवान् तदाख्यरिपुविशेषः, व्यलोकि दृष्टः // 24 // ___उस ( जन-समूह ) में उनलोगों ( इन्द्रादि चारों देवों ) ने धनिकके ( सामने ) में दोनों हाथ पसारे हुए, ( यह देगा या नहीं, अथवा-कटु वचन तो नहीं कह देगा ? इस भावनासे ) डरते हुए ( अत एव ) आधी बातको कहे हुए तथा ( हाथ जोड़ने, पेट आदि दिखलाकर अपनेको भूखा बतलानेकी) चेष्टाओंसे दीन वचनोंको सूचित करते ( अस्पष्ट गद्गद वचन बोलते) हुए ( शरीरधारी) लोम को देखा // 24 // दैन्यस्तैन्यमया नित्यमत्याहारामयाविनः / भुञ्जानजनसाकूतपश्या यस्यानुजीविनः / / 25 // दैन्येति / दैन्यं दारिद्रय, स्तैन्यं स्तेयम् 'स्तेनात् यत् नलोपश्च' इत्यत्र स्तेनादिति
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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