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________________ अष्टादशः सर्गः। 1227 समझो' ऐसा कहनेका अवसर ही कौन-सा है / क्योंकि तुमने स्वर्गाधीश इन्द्रको भी तृणः तुल्य ( तुच्छ समझकर ) परित्यागकर दयारूपी मूल्यसे मुझे खरीद लिया है। [ 'जो तुमने, उक्त प्रकारसे मुझे खरीद लिया है, अतः तुम मुझे अच्छी तरह अपना समझो' ऐसे कहनेका कोई भी अवसर नहीं है, क्योंकि अवास्तविक बातके लिए प्रार्थना की जाती है, वास्तविकके लिए नहीं / 'स्वर्गाधीश तथा दयारूपी मूल्य' कहनेसे यह सूचित होता है कि न तो मैं इन्द्रसे अधिक ऐश्वर्यवान् ही था और न तुमसे अधिक सुन्दर ही था, तथापि तुमने इन्द्रका तृणवत् त्यागकर जो मुझे बरा है, उसमें तुम्हारी दया ही मुख्य कारण है, अत एव उस दयाको तुम मेरे ऊपर जीवन पर्यन्त बनाये रहो, यही प्रार्थना है ] // 141 // शृण्वता निभृतमालिभिभवद्वाग्विलासमसकृन्मया किल / ' मोघराघवविसय॑जानकीश्राविणी भयचलाऽसि वीक्षिता // 142 / / शृण्वतेति / हे प्रिये ! आलिभिः सखीभिः सह, भवस्याः तव, वाग्विलासं कथो. पकथनव्यापारमित्यर्थः सर्वनाम्नो वृत्तिमात्रे पुंवद्भावः / असकृत् अनेकशः, निभृतं गूढं यथा तथा, अन्तराले अवस्थाय आत्मगोपनं कृत्वेत्यर्थः / शृण्वता आकर्णयता, मया नलेन, मोघं व्यर्थम् . सर्वसमक्षमेव अग्निपरीक्षया विशुद्धितायां प्रमाणिताया. मपि अकारणमेवेत्यर्थः / राघवेण रामचन्द्रेण, विसज्या त्याज्याम् , जानकी सीताम्, शृणोति आकर्णयतीति तादृशी, किलेति वार्तायाम् , उत्तरकाले उत्पत्स्यमानो राम. चन्द्रः मिथ्यालोकापवादेन धर्मपत्नी सीतां विसर्जयिष्यतीति समागतः त्रिकालज्ञ. मुनिभिः वर्णितमुपाख्यानं सखीमुखेभ्यः शृण्वतीत्यर्थः / अत एव भयेन आत्मनोऽपि ताहशश्चेत् सम्भवेदिति भीत्या, चला सकम्पा, त्वमिति शेषः। वीक्षिता दृष्टा, असि भवसि / अत एव मयि ते ममत्वबुद्धौ नास्ति वचनावकाश इति भावः // 142 // अनेक बार सखियों के साथ तुम्हारे वाग्विलासको ( देवों के दिये हुए वरदान (14 / 91) के प्रभावसे गुप्त होकर, या प्रकारान्तरसे खम्भे आदिके आड़में छिपकर ) चुपचाप सुनते हुए मैंने ( सबके सामने अंग्निपरीक्षामें निर्दोष सिद्ध होनेपर भी) व्यर्थ ही रामचन्द्रके द्वारा छोड़ी जानेवाली सीताको सुनकर (जिस प्रकार राम निष्कलङ्क एवं प्राणप्रिया सीताजीका त्याग करेंगे या-किया, उसी प्रकार निष्कलङ्क मुझे भी मेरे स्वामी कदाचित त्याग न कर दें, इस प्रकार उत्पन्न हुए ) मयसे चञ्चल (घबड़ायी हुई ) तुमको मैंने देखा है। [ जब रामके द्वारा त्याज्य सीताकी कथामात्र सुननेसे भयसे घबड़ायी हुई तुझे मैंने देखा, अत एव निश्चित कर लिया कि तुम्हारा मुझमें अपार अनुराग है, इस कारण 'तुम मुझे अच्छी तरह अपना समझो' यह कहनेका कोई अवसर हो नहीं है / सत्ययुगमें होनेवाले पूर्वकालिक नल. की अपेक्षा त्रेतामें होनेवाले परकालिक रामचन्द्र द्वारा सीताके त्यागकी चर्चा त्रिकालज्ञ महर्षियोंसे सुनी हुई सखियोंका दमयन्तीसे कहना असम्भव नहीं होनेसे असङ्गत नहीं है। अथवा-ग्रन्यकार कवि श्रीहर्षकी स्वपूर्ववर्ती रामचन्द्र तथा सीताका वर्णन दमयन्तीकी 77 नै० उ०
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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