________________ नैषधमहाकाव्यम् / शशीस्युच्यते, तथा तेनैव सूत्रेण मृगोऽस्यास्तीत्यत्रेनेः प्राप्तौ सस्यामपि मृगीति नोक्तः / तस्मादतिव्याप्त्यादिदोषाद् व्याकरणमूल एव लोकप्रयोग इति नियमो न युक्तः, किंतु कृत्तद्धितसमासानामभिधानं नियामकम् / लक्ष्यमद्दिश्य लक्षणप्रवृत्तिः नतु लक्षणमुद्दिश्य लक्ष्यप्रवृत्तिरिति / तस्मात् 'प्रयोगमूलं व्याकरणम्' इति व्याकरणालोक एवं प्रयोगे बलीयानीति भावः / अप्रस्तुतप्रशंसा // 82 // ____ यह (शब्दव्यवहार करनेवाला ) लोक व्याकरण ( अथवा-लक्षणासे व्याकरणशाताओं) के ( प्रकृति-प्रत्ययके विभाजनपूर्वक शब्द विवेचन मैं ही करता हूं, दूसरा नहीं, ऐसे ) अभिमानको नष्ट करनेके लिए समर्थ है, क्योंकि यह चन्द्रमा 'शश' है इसका वह 'शशी' कहलाता है, परन्तु 'मृग' है इसका वह 'मृगी' नहीं कहलाता है। जिस प्रकार चन्द्रमाको शशवाला होनेसे 'शशी' कहा जाता है, उसी प्रकार मृगवाला होनेपर भी 'मृगी' नहीं कहा जाता अत एव 'अतिव्याप्ति-अव्याप्ति दोष आनेसे व्याकरणमूलक लोकप्रयोग होने का नियम नहीं है, किन्तु कृत्-तद्धित-समास भी उसमें नियामक हैं अर्थात् लोकप्रयोगका अनुगामी व्याकरण होता है, व्याकरणका अनुगामी लोकप्रयोग नहीं होता ] // 82 / / यावन्तमिन्दुं प्रतिपत्प्रसूते प्रासावि तावानयमब्धिनापि | तत्कालमीशेन धृतस्य मूर्दिधन विधोरणीयस्त्वमिहास्ति लिङ्गम् / / 83|| यावन्तमिति / शुक्ल प्रतिपद्यावन्तं यत्प्रमाणमेककलमिन्टुं प्रसूते, अब्धिनापि तावांस्तस्प्रमाण एककल एवायं प्रासावि, न तु पूर्ण इत्यर्थः। एतस्कथं ज्ञातमित्यत आह-तत्कालं तस्मिन्काले समुद्रादुत्पत्तेरवसर इव ईशेन मूर्ध्नि तस्य विधोरणी. यस्त्वं नितरां कायमेवे हैककलस्वे लिङ्गं ज्ञापकमनुमापको हेतुरस्ति / यदि समुद्रेण संपूर्णोऽयमनिष्यत, तर्हि शिवेनापि तदानीमेव शिरसि तावानेवाधास्यत, नतु तथा; तस्मात्प्रतिपदैककलः प्रसूत; तावान्समुद्रेणापीति प्रतिपदुत्पन्नोऽप्ययमेककल स्वादेव न दृश्यत इति भाव // 83 // ' (शुक्लपक्षीय ) प्रतिपदातिथि जितने बड़े अर्थात् एक कलाबाले चन्द्रमाको उत्पन्न उस (चन्द्रोत्पत्तिके ) समयमें शिवजी के द्वारा मस्तकपर धारण किया गया ( एक कलावाला चन्द्रमा ही) इस विषय ( समुद्रसे एक कलावाले ही चन्द्रमाको उत्पन्न होने ) में चन्द्रमाका सूक्ष्मतमत्व ( एक कलात्मक होना ) ही प्रमाण है। [ यदि समुद्रने पूर्ण चन्द्रको उत्पन्न किया होता तो उस समय शिवजी. एक कलात्मक चन्द्रको मस्तकपर धारण नहीं करने 1. 'अलचये लक्षणगमनमतिव्याप्तिः' 'लच्ये लक्षणागमनमव्याप्तिः' इति ज्ञेयम्। 2. तदुक्तं भगवत्पतञ्जलिना महाभाष्ये-'न हि लक्षणेन पदकाराअनुवर्तनीयाः, पदकारैर्नाम लक्षणमनुवर्तनीयम् / ' इति / अत्र लक्षणं व्याकरणसूत्रादिकम्, पदकारा लोके पदप्रयोक्तारो जना इति बोध्यम् /