________________ द्वाविंशः सर्गः। 1543 अनुमान कह रहा है कि-( चन्द्रमा) का अङ्कगत शशक श्वेत कुक्षिवाला होनेसे उत्तान ( ऊपर-स्वर्गकी ओर मुख किया हुआ ) ही है, इस कारण देवोंकी गौ ( कामधेनु) स्वर्ग में उत्तान होकर ( स्वर्गकी ओर मुख करनेसे भूलोकवासियोंके लिये पृष्ठभागको दिखलाती हुई ) चलती है इस विषयमें मैं अधिक श्रद्धालु हूँ। [ शशकका उदर भाग श्वेत होता है, अतः यदि यह हम लोगोंकी ओर मुख किया होता तो चन्द्रकलङ्क भी स्वच्छ ही दृष्टिगोचर होता, परन्तु भूदृष्टवर्ती हम लोगोंको वह काला दृष्टिगोचर होता है, अतः ज्ञात होता है कि चन्द्रकलङ्कगत शशक ऊपर-स्वर्गकी ओर मुख तथा भूलोककी ओर पीठ किया है और जिस कारण यह स्वर्गस्थ शशक उक्तरूपसे स्थित है, इस कारण 'उत्तान (भूलोककी ओर पीठ तथा स्वर्गकी ओर ) मुख करके देवोंकी गायें चरती हैं। एतदर्थिका 'उत्ताना वै देवगवाश्चरन्ति' इस श्रुति में अब मुझे विशेष श्रद्धा हो गयी है ] // 80 / / उक्तरीत्योत्तानगती सिद्धायामपि शशकस्य रक्तपृष्टवान्नीलत्वेन प्रतीतिः कथ. मित्यत आह दूरस्थितैर्वस्तुनि रक्तनीले विलोक्यते केवलनीलिमा यत् / शशस्य तिष्ठन्नपि पृष्ठलोम्नां तन्नः परोक्षः खलु रागभागः // 81 // दूरेति / दूरस्थितैष्टुभी रक्तनीले मिश्रितोभयवर्णे वस्तुनि केवलस्स्यक्तरागभागो नीलिमैव यद्यस्माद् विलोक्यते तत्तस्मात्कारणाच्छशस्य पृष्ठवर्तिरोग्णां तिष्ठन्नपि राग. भागो रक्तिमांशः नोऽस्माकमतिदूरस्थितानां खलु निश्चितं परोने दृग्गोचरो न भवति, किन्तु नीलिमैव दृश्यत इत्यर्थः। विष्ठन्वर्तमानोऽपि परोक्ष इति विरोधा. भासः। दूरस्थत्वान्न दृश्यत इति तत्परिहारः / 'खलु' उत्प्रेक्षायां वा // 8 // दूरस्थ लोग जिस कारणसे लालिमायुक्त नीलवर्णवाली वस्तुके केवल नीलवर्णको ही देखते हैं, इस कारण ( चन्द्र-कलङ्कगत ) शशकपीठकी लालिमा होते हुए भी वह दूरस्थ हम लोगोंको परोक्ष ( अदृश्य ) ही रहती है। ( यही कारण है कि चन्द्रकलङ्कस्थ इस शशकके पीठकी नीलिमा ही हम लोगोंको दृष्टिगोचर होती है, लालिमा दृष्टिगोचर नहीं होती)॥ 81 // भक्तं प्रभुाकरणस्य दर्प पदप्रयोगाध्वनि लोक एषः / शशो यदस्यास्ति शशी ततोऽयमेवं मृगोऽस्यास्ति मृगीति नोक्तः।।२।। भङ्क्तमिति / एष कविर्लोकः पदानां सुप्तिङन्तानां प्रयोगाध्वनि विषये व्याकर. णस्य प्रकृतिप्रत्ययविभागपूर्व शब्दव्युत्पादनकारिणः शास्त्रस्य मदधीन एव सकल. शब्दप्रयोग इति दपं गर्व, यद्वा-लक्षणया वैयाकरणस्य व्याकरणाधीन एव 'सकल'शब्दप्रयोग इति गर्व भवतुं त्याजयितुं प्रभुः समर्थः। यद्यस्मादेतोरयं चन्द्रः शशोऽ. स्यास्ति ततो हेतोः शशी यथोक्ता, लोकेनेति शेषः / एवममुनैव प्रकारेण मृगोऽ. स्यास्ति मृगीति नोक्तः / शशीऽस्यातीति मतुबर्थे 'अत इनिठनी' इतीनौ यथायं