________________ द्वाविशः सर्गः। 1557 तस्मादिनेऽल्पमेव गच्छतीत्यर्थः / रात्रौ दूरागमने हेतुमाह-सुधांशोरमृतरूपाभी रुचिभिराप्यायनादुज्जीवितबलत्वाद्वा तम एव काननं वनं तस्माजन्म यस्य गाढन्ध. कारजाताच्छत्याद्वा तेजसोऽभावे तमसः संभवादौष्ण्याभावाच्छैत्यम् / अत एव रात्री बहु गच्छति, दिने चोष्णेन श्रान्त इव बहु न गच्छति / शब्दो हि रात्री स्वभावा. दतिदूरेऽपि श्रयते; दिवा तु न तथा। पथिकोऽपि रात्रौ शैत्याद्रं गच्छति, दिने चाल्पम् / दूरश्रवणप्रतिपादकोऽयं श्लोकः॥ 108 // चन्द्र-किरणोंसे शक्तिके विशेष उज्जीवित होनेसे या-अन्धकाररूपी वनमें उत्पन्न ठण्डकसे, नित्यगमनशील शब्दरूपी पथिक ( दिनमें ) धूपसे सन्तप्त होने के कारण रात्रिमें जितना ( अधिक दूर ) जाता है, उतना ( अधिक दूर ) दिनमें नहीं जाता। [जिस प्रकार सर्वदा चलनेवाला पथिक दिनमें धूपसे सन्तप्त होने के कारण रात्रिमें जितना अधिक दूरतक जाता है, उतना दिनमें नहीं जाता; उसी प्रकार शब्द मी रात्रिके बराबर दिनमें नहीं जाता / शब्दका दिनकी अपेक्षा रात्रिमें बहुत दूरतक सुनायी पड़ना स्वभाव होनेसे तुम्हारे मुखसे गायी गयी गीत आकाशमें चन्द्रमध्यस्थ मृग भी सुनकर आकृष्ट हो जाता है]॥१०८॥ दूरेऽपि तत्तावकगानपानाल्लब्धावधिः स्वादुरसोपभोगे / अवज्ञयैव क्षिपति क्षपायाः पतिः खलु स्वान्यमृतानि भासः॥ 106 / / दूरेऽपीति / हे प्रिये ! खलु निश्चितं पायाः पतिश्चन्द्रो भासश्चन्द्रिका एव स्वान्यमृतानि क्षिपति अधो मुञ्चति / किंभूतः? दूरेऽप्यतितरां देशष्यवधानेऽपि तत्प्रसिद्धं मधुतरं तावकं गानं तस्य पानात्सादरश्रवणादेतोः स्वादुरसोपभोगे माधुर्यातिशयानुभवे विषये लब्धावधिः प्राप्तमर्यादः। उत्प्रेक्षते-अवज्ञयेव अनुभूतभवद्गीतमाधुर्यापेक्षयाल्पमाधुर्यतयावमाननयेवेत्यर्थः / अयं श्लोको भिन्न एव, नतु युग्मम् // 109 // उस कारण (नित्यगामी शब्दरूप पथिकके रात्रि में दूरतक जाने ) से ( अथवा-उस प्रसिद्धतम ) तुम्हारे गानेको पीने अर्थात सुननेसे स्वादिष्ट रसके उपभोगके विषयमें सीमातक पहुँचा हुआ चन्द्रमा तिरस्कारसे ही अमृतमय अपनी किरणोंको ( नीचे ) फेंकता है [ तुम्हारे गानेको सुनकर चन्द्रमा माधुर्य रसकी चरमसीमा तक पहुँच गया, और अपने अमृतमय किरणों को तुम्हारे मुखसे गानेसे हीन स्वादवाली मानकर नीचे फेंकने लगा। लोकमें भी कोई व्यक्ति उत्तम पदार्थ मिलने पर उससे हीन पदार्थको नीचे फेंक देता है ] // अस्मिन्न विस्मापयतेऽयमस्मांश्चक्षुर्बभूवैष यदादिपुंसः / तदत्रिनेत्रादुदितस्य तन्वि ! कुलानुरूपं किल रूपमस्य / / 110 // अस्मिन्निति / हे तन्वि ! एष चन्द्रः आदिपुंसः श्रीविष्णोमि चक्षुर्बभूवेति यत् / अस्मिनेत्रभवनविषयेऽयं नेत्रभूतश्चन्द्रोऽस्माकं विस्मापयते आश्चर्य न प्रापयति, अन्नार्थेऽस्माकमाश्चर्य न भवतीत्यर्थः / किन यस्मादेतोरत्रिनेत्रादुदितस्योत्पन्न.