SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 861
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नैषधमहाकाव्यम् / स्यास्य तच्चतुर्भवनं कुलानुरूपं कुलोचितं स्वरूपम् / नेत्ररूपाकारणाजातस्य नेत्रीभवनमुचितमेव / तस्मादस्य पुराणपुरुषनेत्रभवने न किंचिदस्माकं चित्रमित्यर्थः / विस्मापयते, 'नित्यं स्मयतेः' इत्यात्वम्, 'भोम्योहे तुभये' इति तङ्। अस्मान् , जनान्तरापेक्षया बहुत्वम् // 110 // हे तन्वि ! यह चन्द्रमा जो आदिपुरुष (विष्णु भगवान् ) का ( दहना ) नेत्र हुआ, इस विषयमें हमलोगों को आश्चर्य नहीं होता, क्योंकि 'अत्रि' मुनिके नेत्रसे उत्पन्न इस ( चन्द्रमा ) का रूप ( विष्णु भगवान्का नेत्र होना ) कुलके योग्य ही है। [ 'अत्रि' के नेत्रसे उत्पन्न होनेवाले चन्द्रमाका विष्णु भगवान्का नेत्र होना सर्वथा उचित ही है ] // 110 // आभिमृगेन्द्रोदरि ! कौमुदीभिः क्षीरस्य धाराभिरिव क्षणेन | अक्षालि नीली रुचिरम्बरस्था तमोमयीयं रजनीरजक्या / / 111 / / आभिरिति / हे मृगेन्द्रोदरवत्कृशमुदरं यस्यास्ताहशि ! रजन्येव रजकी तया क्षीरस्य दुग्धस्य धाराभिरिव दृश्यमानाभिर्धवलतराभिराभिः कौमुदीभिः कृत्वाऽम्ब. रस्था गगनस्था तमोमयीयं नीली कजलवरकाली रुचिः क्षणमात्रेणाक्षालि निरस्ता। यथा रजक्या वसनस्था काली कान्तिर्दुग्धधाराभिः क्षणेन क्षात्यते / तदुक्तं कला. कोपे-'तैलं घृतेन, तच्चोष्णजलैर्दुग्धेन कज्जलम् / नाशयेदम्बरस्थं तु मलं क्षारेण सोमणा।' इति / चन्द्रिकाभिर्गगनं निर्मलीकृतमिति भावः। मृगेन्द्रोदरि, 'नासि. कोदर-' इति ङीष् / ओषधिप्राणिवाचिस्वाभावान्नीलीव नीलोति कोष समर्थनीयः / रजकी, वुनः षित्वान्डीष // 111 // हे सिंहके समान कृश कटिवाली (प्रिये दमयन्नि ) ! रात्रि रूपिणी रजको ( कपड़ा धोनेवाली-धोबिन ) ने दूधको धाराके समान ( स्वच्छतम ) इन किरणोंसे, अन्धकारमयी तथा आकाशस्थ ( पक्षा-वस्त्रस्य ) कालिमाको क्षणमात्रमें (अतिशीघ्र) धो दिया है // 111 // पयोमुचां मेचकिमानमुच्चैरुच्चाटयामास ऋतुः शरद्या। अपारि वामोरु ! तयाऽपि किञ्चिन्न प्रोछितुं लाञ्छनकालिमाऽस्य // पय इति / हे वामोरु ! या शरहतुः पयोमुचां मेघानां वर्षाकालीन मुचकरति. शयितमपि मेचकिमानं कालिमानमुच्चाटयामास / तया कालिमापनयने दृष्टसाम. खंया शरदाप्यस्य चन्द्रस्थ लान्छनरूपः कालिमा किंचिदपमपि प्रोन्छितुं स्फोट. यितुं नापारि / शरदच्छे चन्द्रे मलिनः कलङ्कोऽतितरां शोभत इति भावः। मेचकिमानं, वर्णवाचित्वादिमनिच // 112 // __ हे वामोरु ! जिस शरद् ऋतुने मेघोंकी अत्यधिक कालिमाको दूर कर दिया, वह शरद् ऋतु भी इस ( चन्द्रमा) के थोड़े लाञ्छनको दूर नहीं कर सका। [ जो वर्षा ऋतुमें उत्पन्न मेघरूपी विशाल चन्द्रकलङ्कको नष्ट कर दिया, उसका थोड़े से चन्द्रकलंकको नष्ट नहीं कर सकना आश्चर्य है ] // 112 //
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy