________________ विंशः सर्गः। 1317 स्तनोंकी पराङ्मुखता ही हम जानते हैं / अथवा-स्त्रीहृदय स्वभावसे ही मृदु होता है, उससे उत्पन्न होकर मृदुताका त्याग करनेवाले ( अत एव, विपरीत लक्षणासे ) अयुक्त आचरणवाले इन स्तनोंकी हम दमयन्ती हृदयसे पराङ्मुखता ( मृदु हृदयसे उत्पन्न होकर भी मृदुताका त्याग करनेसे विपरीताचरणपरायणता ) ही जानते हैं / अथवा-इसके सुन्दरतम हृदयको पाकर कठिनताको प्राप्त तथा अत्यन्त बड़ा एवं गोलाकार इन स्तनोंको आगेमें श्यामवर्ण होनेसे हृदयके साथ पराङ्मुखता (विपरीत व्यवहार ) ही जानते हैं। अथपा-उक्तरूप सनोंकी विमुखता (चूचुकशून्यता) ही जानते हैं अर्थात् दमयन्तीकी अल्पावस्था होनेसे कठिन एवं स्तनाग्रभागमें श्यामवर्ण वृन्त (चूचुक ) से हीन ( अत एव ) युक्त आचरण करनेवाले स्तनोंको जानते हैं / अथवा-ऐसे सहज कोमल स्त्रीहृदयको पाकर मूर्खताको नहीं छोड़ते हुए तथा मेरे प्रति सदय होनेसे युक्त आचरण करनेवाले इन स्तनोंको विमुखता ( विशिष्ट = उन्नत, मुखता=अग्रभागता ) को हो जानते हैं ] // 36 // इति मुद्रितकण्ठेस्मिन् सोल्लुण्ठमभिधाय ताम् / दमयन्तीमुखाधीत-स्मितयाऽस्मै तया जगे // 37 // इतीति / अस्मिन् नले कान्ते, तां कलाम , सोल्लुण्ठं सोत्प्रासम् , सपरिहास. मित्यर्थः / 'सोल्लुण्ठनन्तु सोत्प्रासम्' इत्यमरः / इति एवम् , अभिधाय उक्त्वा, मुदितकण्ठे निरुद्धगले, तूष्णीम्भूते सतीत्यर्थः। तया कलानामसख्या, दमयन्ती. मुखाधीतस्मितया दमयन्त्याः वयस्यायाः भैम्याः, मुखात् आननात् , अधीतं शिक्षि. तम्, गृहीतमिति यावत् , स्मितं मन्दहास्यं यया तादृशया सत्या, दमयन्ती हसन्ती दृष्ट्वा स्वयमपि स्मयमानया सत्या इत्यर्थः / अस्मै नलाय, जगे जगादे, नलः गदितः इत्यर्थः / 'क्रियया यमभिप्रेति सोऽपि सम्प्रदानम्' इति क्रियया अभिप्रायात् सम्प्र. दानस्वम् , तथा चाविवक्षितकर्मवाद्भावे लिट् / अस्मै इत्यत्र 'असौ' इति पाठे-असौ नलः, जगदे उचे, वक्ष्यमाणं वच इति शेषः / कर्मणि लिट् // 37 // उस (कल्ला ) से इस प्रकार ( 20 / 27-36 ) वक्रोक्ति आदिसे युक्त वचन कहकर इस ( नल ) के मौन होनेपर दमयन्तीके मुखसे स्मितका अध्ययन की हुई अर्थात् दमयन्तीको स्मित करती हुई देखकर स्वयं भी स्मित करती हुई उस (कला) ने इस (नल) से कहा // 37 // भावितेयं त्वया साधु नवरागा खलु त्वयि / चिरन्तनानुरागाहे वत्तते नः सखीः प्रति / / 38 / / यदुक्तं 'कस्मादस्माकम्' इत्यादि तत्र तावदुत्तरमाह-भावितेति / हे महाराज ! स्वया भवता, इयं सखी भैमी, साधु सम्यक् , भाविता तर्किता, खलु इति निश्चये यतः, त्वयि भवति नवरागा नूतनपरिचयात् नूतनानुरागा, जातेति शेषः / अतः तदनुरूपं वर्तते इति भावः / नः अस्मान् , सखीः सहचरीः प्रति तु, चिरन्तनस्य पुरातनस्य, अनुरागस्य प्रणयस्य, आबाल्यमेकत्रावस्थानात् सहजानुरागस्येत्यर्थः /