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________________ चतुदेशः सर्गः। 823. जिस-जिस इन्द्रादिके साथ ( ब्रूमः किमस्य-' आदि चार गाथाएं ( 13 // 3-6) इन्द्रके साथ, 'एष प्रतापनिधिः-' आदि चार गाथाएं (339-12) अग्निके साथ, 'दण्डं बिभर्ति-' आदि चार गाथाएं ( 13 / 15-18 ) यमके साथ तथा 'या सर्वतो-' आदि चार गाथाएं (13 / 2124 ) वरुणके साथ ) तुल्य अर्थवाली थीं, उस ( दमयन्ती ) ने तब ( इन्द्रादि देवों के प्रसन्न होकर सद्बुद्धि देनेके बाद ) उस-उस इन्द्रादिरूप मुख्यार्थसे इलेषशक्तिके सामर्थ्य से प्रतीयमान नलरूप अर्थके साथ निश्चित रूपसे नहीं लगती अर्थात् असम्बद्ध अर्थवाली होती हुई उस-उस गाथा को विशेष ( अपने-अपने आकार धारण करने से भिन्न इन्द्रादि देवों) के प्रति संयुक्त किया अर्थात् (ब्रमः किमस्य-' (1333) से लेकर 'शोणं पदप्रणयिनं-' (13 / 24) तक श्लेषार्थयुक्त चार-चार गाथाओंको इन्द्रादिके तथा सब गाथाओंको नलके साथ सम्बद्ध होनेसे इन्द्र के लक्ष्यसे कही गयी 'ब्रमः किमस्य-' आदि चार गाथाओं ( 13:3-6 ) को केवल इन्द्रविषयक, 'एष प्रतापनिधि-' आदि चार गाथाओं ( 139-12 ) को अग्नि-विषयक, 'दण्डं जिभर्ति-' आदि चार गाथाओं (13 15-18 ) को यम-विषयक और 'या सर्वतो-' आदि चार गाथाओं ( 13021-24 ) को वरुण-विषयक ही समझा-इन गाथाओं को नल-विषयक नहीं समझा अर्थात् जो चार गाथाएं इन्द्र तथा नल दोनों का वर्णन श्लेषशक्ति के द्वारा करती थीं उन्हें-उन्हें केवल इन्द्रविषयक ही समझा नल-विषयक नहीं, इसी प्रकार अग्नि, यम तथा वरुणके साथ नलका भी श्लेषशक्तिके द्वारा वर्णन करनेवाली 4-4 गाथाओंको अग्नि-यम-वरुण-विषयक ही समझा; नल-विषयक नहीं ) // 9 // एकैकवृत्तेः पतिलोकपालं पतिव्रतात्वं जगृहुर्दिशां याः। वेद स्म गाथा मिलितास्तदाऽसावाशा इवैकस्य नलस्य वश्याः / / 10 / / एकैकेति / या गाथाः 'अत्याजि' इत्यादयः श्लोकाः, एकैकस्मिन् लोकपाले वृत्तेः वर्तमानाद्धेतोः, प्रतिलोकपालं प्रत्येकदिकपालं प्रति, दिशां पूर्वादीनां. पतिव्रतात्वं जगृहः तत्साम्यान् प्राच्यादिदिश इव इन्द्रायेकैकलोकपालपरा बभूवुरित्यर्थः, तदा देवताप्रसादकाले, असौ भैमी, मिलिताः समस्ताः, गाथा आशा दिश इव, एकस्य नलस्य वश्याः वशङ्गताः, नलमात्राभिधायिनीरित्यर्थः, 'वशं गत' इति यत् प्रत्ययः, वेद स्म 'लट स्मे' इति भूते लट , 'विदो लटो वा' इति णलादेशः आशानां प्रत्येकम् इन्द्रायेकैकलोकपालपरत्वेऽपि सर्वासां पूर्वादिदिशां यथा चक्रवर्तिनलैकवश्यत्वात् नलपरत्वं तथा गाथा अपि आपातत एककश एकैकलोकेशपरतया प्रतीता अपि सामस्त्येन नलपरा एवेति विवेदेत्यर्थः, तस्य सर्वाशाविजयित्वादाशानां तत्परत्वं गाथानान्तु देव्याः चतुरोक्तिभङ्गिपर्यालोचनयेति भावः // 10 // जो ( 'अत्याजि-' इत्यादि चार (13 / 27-30) गाथाएँ एक-एक (इन्द्रादि चारों देवोंमें-से प्रत्येक गाथा क्रमशः इन्द्र, अग्नि, यम तथा वरुण ) में वर्तमान रहनेसे प्रत्येक लोकपाल (इन्द्रादि चारों देवों ) के प्रति दिशाओं ( पूर्व, अग्नि कोण, दक्षिण तथा पश्चिम)
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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