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________________ 832 नैषधमहाकाव्यम् / प्रसादमिति / सा भैमी, सुरैः कृतं प्रसादमनुग्रहम् , आसाद्य सरस्वत्या इयं सारस्वती तस्याः सूक्तिसृष्टेः 'अत्याजि' इत्यादेः पूर्वसर्गोक्तश्लिष्टोक्तिगुम्फस्य, सस्मार तदर्थतत्त्वं जज्ञावित्यर्थः 'अधीगर्थ-' इत्यादिना कर्मणि शेषे षष्ठी / तस्याः नलप्राप्तौ देवानां कोऽयमनुग्रहो यत् सारस्वतसूक्तिपरिज्ञानमात्रम् ? तत्राह,-हि यतः, ते देवाः प्रसद्य अनुगृह्य, सदेः क्त्वो ल्यप् , अन्यत् बुद्धेरन्यत् किञ्चित् देयमित्यर्थः न वितरन्ति, किन्तु साधुधियं फलप्राप्त्युपायपरिज्ञानं, ददन्ते प्रयच्छन्ति, 'दद दाने' इति धातोभीवादिकाल तङ्, तदाहुः,-'न देवा दण्डमादाय रक्षन्ति पशुपालवत् / यं हि रक्षितुमिच्छन्ति बुद्धया संयोजयन्ति तम् // इति // 8 // उस ( दमयन्ती ) ने देवों के द्वारा की गयी प्रसन्नताको प्राप्तकर अर्थात् इन्द्रादि देवों के प्रसन्न होनेपर सरस्वती देवीके श्लेषमयी सुन्दर उक्तियों के समूह (या-रचना) का स्मरण किया अर्थात् सरस्वतीके कहे हुए श्लेषयुक्त वचनोंसे उत्पन्न सन्देहको छोड़कर वास्तविक अर्थका स्मरण होनेसे वास्तविक नलको पहचान लिया, यह निश्चित है कि देव दूसरा कुछ नहीं देते, किन्तु वे प्रसन्न होकर अच्छी (ग्राह्याग्राह्यज्ञानयुक्त ) बुद्धि देते हैं / [ उस देव. प्रदत्त सद्बुद्धि के द्वारा ही दमयन्तीने सरस्वतीके श्लिष्ट वचनों के द्वारा कहे गये अनेक अर्थोंको छोड़कर स्वाभीष्टसाधक अर्थका ज्ञान होनेसे वास्तविक नलको पहचान लिया ] // 8 // शेषं नलं प्रत्यमरेण गोथा या या समार्था खलु येन येन / तां तां तदन्ये न सहालगन्तों तदा विशेष प्रति सन्दधे सा // 9 // शेषमिति / या दमयन्ती शेषं पञ्चमं परमार्थ, नलं प्रति, विरचितेति शेषः, या या गाथा 'अत्याजिलब्ध' इत्यादिको यो यः श्लोकः, येन येन अमरेण देवेन, समार्था समानाभिधेया, खलु, अत एव तदन्येन ततस्ततः, मुख्यार्थरूपात् इन्द्रादेरित्यर्थः, अन्येन श्लेषमहिम्ना प्रतीयमानेन सत्येन नलेन, सह अलगन्तीम् असङ्गतां, तत्परत्वेनानिश्चितामिति यावत् , तां तां गाथां, तदा देवतानुग्रहलब्धस्मृत्युबोधकाले, विशेष प्रति सत्यनलं प्रति, सन्दधे नलपरत्वेन योजयामासेत्यर्थः; इत्यादिपरत्वशङ्का विहाय नलपरत्वं निश्चिकायेति तात्पर्यार्थः // 9 // उस ( दमयन्ती ) ने शेष ( इन्द्रादि चारों देवोंसे बाकी बचे हुए ) नलके प्रति ( सरस्वती देवीके द्वारा कही गयी ) जो जो गाथा ( 'अत्याजि-' इत्यादि चार 13.17-30 श्लोक ) जिस-जिस ( देव अर्थात् क्रमशः इन्द्र, अग्नि, यम तथा वरुण) के साथ समान अर्थवाली थी, अत एव उस-उस ( मुख्यार्थरूप इन्द्र आदि ) से भिन्न (श्लेषद्वारा प्रतीयमान वास्तविक नल, अथवा-अग्नि आदि ) के साथ नहीं लगती हुई अर्थात् असङ्गत उस उस गाथाको तब ( इन्द्रादिके प्रसन्न हो जानेपर ) विशेष अर्थात् वास्तविक नलके प्रति लगाया अर्थात् इलेष द्वारा प्रतीयमान इन्द्रादि चारों देवोंको छोड़कर इस गाथाको वास्तविक नलके लक्ष्यसे सरस्वती देवीद्वारा कही गयी मानकर उस ( वास्तविक नल ) का निश्चय किया। ( अथवा-शेष इन्द्रादिसे पांचवें स्थानपर बैठे हुए वास्तविक नलको लक्ष्यकर जो-जो गाथा
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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