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________________ सप्तदशः सर्गः। 1066 'राजिलः दुण्डुभाख्यः निर्विषः सोऽपि / 'समौ राजिलकुण्डभौ' इत्यमरः / स्वैः आत्मीयः, स्वजात्यनुरूपैरित्यर्थः। सुखहेतुभिः जलविहारभकभक्षणसजातीयरमणीसम्भोगादिभिः सुखसाधनैः, राजा इव नृपतिवत् , सुखी सुखवान् , सुखमनुभवतीत्यर्थः। तिरश्वामपि शरीरेन्द्रियाभिमानिनां सुखानुभूतिरस्ति / अतः तिर्यगयोनित्वे प्राप्तेऽपि तद्धेतोः पापात् न भेतव्यम् इति भावः // 71 // ___इस ( परस्त्री-सम्मोग, ब्रह्महत्यादि ) पापसे तिर्यग् योनि होगी, इसमें कौन-सा भय है, क्योंकि ( स्वजातिवालोंमें हीनतम ) राजिल अर्थात् डोंड़ साँप भी अपने ( अनुकूल मण्डूकादि भक्षण एवं स्त्रीसम्भोग आदि ) सुखके कारणोंसे राजाके समान सुखी रहता है। [अतः परस्त्री-गमन, ब्रह्महत्यादि पापसे तिर्यग् योनि प्राप्त करनेपर अपार दुःख भोगने पड़ते हैं, इत्यादि भय करना व्यर्थका भ्रम है ] // 71 // हताश्चेदिवि दीव्यन्ति दैत्या दैत्यारिणा रणे / तत्रापि तेन युध्यन्तां हता अपि तथैव तु / / 72 / / अन्यच्च शास्त्रं विडम्बयति-हता इति / रणे युद्धे, हताः विनष्टाः, शूरा इति शेषः / दिवि स्वर्गे, दीव्यन्ति क्रोडन्ति, चेत् यदि, दिव्यदेहं प्राप्येति भावः / तर्हि दैत्यारिणा विष्णुना, हताः रणे विनष्टाः, देत्याः असुराः, पापकारिण इति भावः / तत्रापि स्वर्गेऽपि, तेन विष्णुना सह, युध्यन्तां युध्येरन् , रणे हतत्वात् दिव्यदे प्राप्य इति भावः। यस्मात् हता रणे विनष्टा अपि, ते देत्याः, तथैव सम्मुखरण. हतस्वात् स्वर्ग जीवनविशिष्टा एव; मरणसमयेऽपि देत्यारिणा सह शत्रुभावस्य हृदये वर्तमानतया स्वर्गगमनेऽपि असुरभावस्य वर्तमानत्वात् , तत्रापि तेन सह सङ्ग्राम. यितव्यमेव, न चैतदस्ति, तस्मादपि शास्त्रं मृषा इति निष्कर्षः // 72 // __ यदि युद्ध में मारे गये ( शूरवीर ) स्वर्ग में कोड़ा करते हैं तो (विष्णुके द्वारा मारे गये भी हिरण्यकशिपु आदि ) दैत्य उस स्वर्गमें भी ( देवरूप देहान्तरकी प्राप्ति होनेपर भी मरणकालमें भी आसुर भाव रहनेसे ) उस विष्णुके साथमें उसी प्रकार युद्ध करें। [युद्धमें शरीर त्यागकर शूरवीर स्वर्गमें जाते हैं इस सिद्धान्तके अनुसार विष्णु भगवान्ने जिन हिरण्यकशिपु आदि दैत्योंको युद्ध में मारा है, वे भी स्वर्गमें जाकर देव हुए होंगे, किन्तु मरने के समयमें आसुर भाव बने रहने के कारण देवशरोर पा लेनेपर भी उस आसुर भावका त्याग नहीं होनेसे वहां स्वर्गमें भी उन दैत्योंको देवों तथा विष्णु भगवान्के साथ युद्ध करना उचित था, किन्तु ऐसा होनेका प्रमाण किसो पुराणादिमें नहीं मिलनेसे ज्ञात होता है कि युद्धमें मरनेपर देव होकर स्वर्गमें क्रीड़ा करनेकी कल्पना केवल भ्रममात्र है ] // 72 // स्वञ्च ब्रह्म च संसारे मुक्तौ तु ब्रह्म केवलन् / 1. 'हतावपि' इति पाठान्तरम् / 2. यं यं वापि रमरन् भावं त्यजस्यन्ते कले. वरम्' इत्यादि भगवद्गीतोक्तेरिति बोध्यम् /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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