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________________ 1068 नैषधमहाकाव्यम् / भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः // 70 // क इति / प्राज्ञाः! हे प्रज्ञावन्तः ! इति सोपहासमामन्त्रणं, प्रकृष्टज्ञानहीनाः इत्यर्थः, 'प्रज्ञाश्रद्धा' इत्यादिना मत्वर्थीयो णप्रत्ययः शमः शान्तिः, वैराग्यमित्यर्थः, कः ? न कोऽपीत्यर्थः। शमावलम्बनस्य न किमपि फलमस्तीति भावः। प्रियाप्राप्तौ इष्टस्त्रीसङ्गती, परिश्रमः प्रयासः, क्रियतां विधीयताम् / न च तत्पापेन नरकयातनाप्राप्तिशङ्का कार्यत्याह-भस्मीसूनस्य दग्धस्य, देहस्य कायस्य, आत्मभूतस्य इति यावत् / पुनः भूयः, आगमन परलो के प्रत्यावर्त्तनं, कुतः ? कथं सम्भवेदित्यर्थः ? / देहात्मवादिमते परलोकसद्भावेऽपि यस्मिन् देहे पापं कृतं तस्यैव भस्मीभूतत्वेन कथं पापफलभोगसम्भवः ?, देहातिरिक्तात्मवादिमते तु परलोकस्यवाभावात् पापफलभोगार्थ कृमिकीटादिदेहप्राप्तिः कथं सम्भवेत् ? इति पुनरुद्भवः श्रम एव इति निष्कर्षः॥ हे प्राशो ( अधिक ज्ञानवानों-उपहाससे मूखौं, अथवा-'प्र+अज्ञ' पदच्छेदकर हे महामूर्यो ) शान्ति अर्थात् वैराग्य क्या है ? अर्थात् यज्ञादि करनेसे मरने के बाद स्वर्ग पाकर देवाङ्गनासङ्गमकी इच्छा बने रहने के कारण शान्ति-वैराग्य कुछ भी नहीं है, अत एव प्रिया (स्त्री) को पाने ( पाठा०-स्त्रीके साथ प्रेम करने ) में अधिक श्रम (प्रयत्न ) करो, ( परस्त्री-सम्भोग करनेपर नरकादि पानेका भय भी नहीं करना चाहिये, क्योंकि-) जले हुए शरीरका फिर आना ( परलोकमें शरीरान्तर ग्रहण करना ) कैसे होता है ? अर्थात् नहीं होता। [यज्ञकर्ता यज्ञ करके मरने के बाद स्वर्गमें भी देवाङ्गनाके साथ सम्भोग करनेकी इच्छा करते हैं, अतः वैराग्य कहीं भी नहीं है / इसलिए स्त्रीके साथ सम्भोग करनेके लिए भरपूर उपाय करना चाहिये / मरनेपर दूसरा शरीर धारणकर परस्त्रीसम्भोगजन्य पापके कारण दुःख भोगनेकी शङ्का भी नहीं करनी चाहिये, क्योंकि देहको ही आत्मा माननेवालोंके मतमें परलोक रहनेपर भी पापकर्ता देहके भस्म हो जानेके कारण तथा देहसे भिन्न आत्मा माननेवालोंके मतमें परलोकका ही अभाव होनेके कारण दूसरे देहको पाकर दुःख भोगना सम्भव ही नहीं है, अत एव जीवनपर्यन्त यथेष्ट स्त्रीसम्भोगादि करना चाहिये ] // 70 // एनसाऽनेन तिर्यक् स्यादित्यादिः का विभीषिका ? | राजिलोऽपि हि राजेव स्वः सुखी सुखहेतुभिः // 71 // अस्तु वा नरकभोगार्थ यातनाशरीरं तत्रापि सुखमेवेत्याह-एनसेति / अनेन एवं विधेन, एनसा पापेन, तिर्यक कृमिकीटादियातनाशरीरं स्याद् भवेत् , इत्यादिः एतत्प्रभृतिः, का विभीषिका ? किं ब्रासनम् ? अनिष्टाजनकत्वात् तदकिञ्चित्करमित्यर्थः, विपूर्वात् भीषयतेर्धात्वर्थनिर्देशे ण्वुल कात् पूर्वस्येकारः। हि तथा हि, 1. 'भूतस्य' इति पाठान्तरम् / 2. अयं श्लोकः 'प्रकाश' कृता 'उभयी प्रकृति.. (1768)' तः प्राग्व्याख्यातः। 3. 'प्रत्ययस्थात्कारपूर्वस्य' इत्यनेन सूत्रेणेति बोध्यम् /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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