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________________ सप्तदशः सर्गः। 1067 च्छलसे चार्वाक कलिमुखसे अपने सिद्धान्तका प्रतिपादन करता हुआ उक्त सूत्रका वह अर्थ करता है कि–'तृतीया प्रकृतिः षण्ढः ( अमर० 2 / 6 / 39) इस कोषप्रामाण्यसे तृतीया प्रकृति अर्थात् नपुंसक व्यक्ति ( काममें असमर्थ होने के कारण ) मोक्षमें आसक्त होवे' और 'शेष उभयी प्रकृति अर्थात् स्त्री-पुरुष व्यक्ति कामसेवन ( मैथुन करने ) में समर्थ होने के कारण काम-सेवन ही करें। ऐसा मैरे (चार्वाकके ) ही आचार्योका नहीं अपितु तुमलोगों के सर्वमान्य पाणिनि मुनिका भी मत है / यह 'अपि' शब्दसे ध्वनित होता है। अथ च'धर्मार्थकाममोक्षाः स्युः' इस वचनमें 'मोक्ष' अर्थात् अपवर्गके अव्यवहित पूर्व 'काम' का कथन होनेसे 'तृतीय प्रकृति' अर्थात् नपुंसक व्यक्ति मोक्षका और शेष दो प्रकृति अर्थात् स्त्री-पुरुष व्यक्ति कामका सेवन करें यह पाणिनिका भी मत है ] // 68 // बिभ्रत्युपरि यानाय जना जनितमजनाः / विग्रहायाग्रतः पश्चाद्गत्वरोरभ्रविभ्रमम् / / 66 // बिभ्रतीति / उपरि यानाय ऊर्ध्वलोकगमनाय, जनितमजनाः निमग्नाः, तीर्थो. दकेषु कृतस्नानाः इत्यर्थः / अधः गच्छन्तः इति भावः। जनाः स्वर्गार्थिनो लोकाः, अग्रतः पुरतः, सम्मुखे इत्यर्थः, विग्रहाय युद्धाय, सम्मुखयुद्धाय इत्यर्थः, पश्चाद्व. राणां पश्चाद्वामिनाम् / 'गस्वरश्च' इति क्वरबन्तो निपातः, उरभ्राणों मेषाणां, विभ्र. ममिव विभ्रमं चेष्टां, बिभ्रति दधतीति निदर्शनालङ्कारः, स चोर्ध्वगमनाय अधो गच्छत इति स्थूलबुद्धीनां स्थूलबुद्धिप्रयासरूपविचित्रालङ्कारोत्थापित इति सङ्करः; तेन तेषामविमृश्यकारिवं व्यज्यते.इत्यलङ्कारेण वस्तुध्वनिः // 19 // (अब वह गङ्गादिमें स्नान करनेको निन्दा करता है-) ऊपर (पक्षा०-स्वर्ग) जाने के लिये मज्जन किये ( डुबकी लगाये, पक्षा०-नीचेकी ओर गये) हुए लोग आगे अर्थात सामनेमें युद्ध के लिए पीछे हटनेवाले भेड़ेकी चेष्टा ( समानता) को धारण करते (भेडेके समान आकृतिवाले, अथच-भेड़ेके समान मूर्ख मालूम पड़ते) हैं। [ किसीको ऊपर जाने के लिए ऊपरकी ओर उठना उचित है, न कि नीचेकी ओर बैठना, किन्तु ऊपर अर्थात स्वर्ग को जानेके लिए जो लोग गङ्गा आदि तीर्थोंमें डुबकी लगाते (नीचेकी ओर झुकते ) हैं, वे लोग आकृति तथा बुद्धिमें उस भेड़ेके समान हैं जो आगेकी ओर युद्ध करनेके लिए पीछेको हटता है। जब कोई पानी में डुबकी लगाने के लिए शीतबाथासे शिरके पीछे तथा कटिपर हाथ रखता है, अथवा-जलमें अघमर्षण करते समय नाकपर दहिना हाथ और पीठपर बायां हाथ रखता है तब वह आकारमें युद्धार्थ पीछे सरकते हुए भेड़ेके समान मालूम पड़ता है / अथच-गङ्गादिसे स्नान करनेसे स्वर्गादि प्राप्ति नहीं होनेके कारण वे स्नानकर्ता भेडेके समान महामूर्ख हैं ] // 69 // कः शमः ? क्रियतां प्राज्ञाः ! प्रियाप्राप्ती परिश्रमः / 1. 'विग्रहस्या-' इति पाठान्तरम् / 2. 'प्रियाप्रीतौ' इति पाठान्तरम् / 67 नै० उ०
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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