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________________ 1066 नैषधमहाकाव्यम् / शान्त चित्तवाले (विषयभोगशून्य ) तथा मरकर भी मृगलोचनी है सार जिसमें ऐसे स्वर्गको चाहनेवाले यज्ञकर्ताओंने कामुकता (कामीपने) का अच्छी तरह त्याग किया ? अर्थात् नहीं किया, ( अथवा-सुखदायिनी होनेसे श्रेष्ठ कामुकताको नहीं छोडा,' अथा-कामुकता को नहीं छोड़ा, यह ठीक है)। [इन्द्रियोंका दमनकर संयतचित्त एवं ब्रह्मचर्यधारण कर यज्ञकर्ता लोग स्वर्ग पानेके लिए यज्ञ करते हैं, किन्तु उस स्वर्गमें सारभूत पदार्थ मृगनयनी अप्सराएँ ही हैं और उन्हींको प्राप्तकर आनन्दपूर्वक जीवन व्यतीत करने के लिए ही यज्ञ किया जाता है, इससे यह प्रमाणित होता है कि यज्ञकर्तालोग यद्यपि इस जन्ममें इन्द्रियोंको वशमें रखते हुए ब्रह्मचर्य धारणकर यज्ञ करते हैं तथापि मरकर भी वे मृगनयनी स्त्रियों ( अप्सराओं) के साथ सम्भोग करने के लिए ही यज्ञ करते हैं, अत एव जो मरकर भी स्त्रीकी कामुकताका त्याग नहीं कर सकते, वे भला जीवित रहते हुए इन्द्रियनिग्रहकर कामुकताका त्याग क्या कर सकते हैं ? अर्थात् कदापि नहीं; अतएव वे यज्ञकर्ता अतिशय कामुक हैं और उनका यज्ञ करते समय ब्रह्मचर्यादि पालन करना ढोंग तथा आत्मवञ्चनामात्र है ] // 67 // उभयी प्रकृतिः कामे सज्जेदिति मुनेर्मतम् | अपवर्गे तृतीयेति भणतः पाणिनेरपि // 68 // उभयीति / 'अपवर्गे तृतीया, इति भणतः कथयतः, सूत्रं कुर्वतः इत्यर्थः / पाणिनेः तदाख्यस्य प्रसिद्धवैयाकरणस्य, मुनेः ऋषेरपि, उभयी प्रकृतिः स्त्रीपुंसात्मिका द्वयी योनिः, कामे कामात्मके तृतीयपुरुषार्थे, इत्यर्थः। मिथुनधर्म मथुने वा, सज्जेत् आसक्ता भवेत् , स्त्री पुमांश्च द्वयं कामासक्तो भवेदित्यर्थः। इति मतम् अभिप्रायः स्फुटमेव इत्यर्थः। तथा तृतीया प्रकृतिः शण्ढः, क्लीब इत्यर्थः / 'तृतीया प्रकृतिः शण्ढः क्लीबं पण्डो नपुंसकम्' इत्यमरः / अपवर्गे मोक्षे, नपुंसकत्वेन मैथुनाशक्तत्वात् ब्रह्मचर्यादिद्वारा मोक्षलाभायेत्यर्थः। सज्जेत् इति पाणिनिसूत्रार्थेन उभयी प्रथमद्वितीया, प्रकृतिः स्त्रीपुंसात्मिका योनिरित्यर्थः। कामे सज्जेत् इति पारिशेष्याद् बोध्यते इति भावः। सूत्रस्थशब्दच्छलेन ताहशविकृतार्थं परिकल्प्या स्वमतसमर्थन कृतम् , वस्तुतस्तु 'अपवर्ग फलप्राप्तौ तृतीया विभक्ति'रिति तत्सूत्रस्यार्थः / तथा च वृथा कामं विहाय अपवर्गे प्रवर्त्तमाना यूयं नपुंसका हताः स्थेति भावः / / 68 // ___ 'अपवर्गे तृतीया (पा० सू० 2 / 3 / 6)' ऐसा कहते हुए पाणिनि मुनिका भी 'स्त्री-पुरुष काम ( मैथुनरूप तृतीय पुरुषार्थ) में आसक्त होवें', ऐसा मत (सिद्धान्त) है। [ यद्यपि उक्त पाणिनि-सूत्रका फलप्राप्ति द्योत्य रहनेपर काल तथा मार्गके अत्यन्त संयोगमें तृतीया विभक्ति होती है' (जैसे-अह्नाऽनुवाकोऽधीतः, क्रोशेनानुवाकोऽधीतः...... ) तथापि शब्द- 1. अन्नार्थे 'साधुकामुकताऽमुक्ता' इत्येवं पाठोऽङ्गीकार्यः। 2. अन्नाथै साधुकामुकताऽमुक्ता' इत्येवं पाठः स्वीकार्यः।
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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