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________________ सप्तदशः सर्गः। 2065 दासीमें 'विदुर' नामक एक पुत्रको उत्पन्न किया। विशेष कथाप्रसङ्ग महामारतसे ज्ञात करना चाहिये। देवैर्द्विजैः कृता ग्रन्थाः पन्था येषां तदाहतौ / गां नतैः किं न तैर्व्यक्तं ततोऽप्यात्माऽधरीकृतः // 66 // देवैरिति / हे मूढाः! येषां वः, देवैः ब्रह्मादिभिः, द्विजैः व्यासादिभिश्च, कृताः रचिताः, ग्रन्थाः पुस्तकानि, 'गां प्रणमेत्' इत्यादि स्मृतयः इति यावत् / पन्थाः प्रमाणं, धर्माधर्मोपदेष्टा इत्यर्थः। तदाहती तदादरनिमित्तं, तस्मिन् ग्रन्थे श्रद्धाहेतोरित्यर्थः / निमित्तार्थे सप्तमी। गां धेनुं नतैः प्रणतः, तैः भवद्भिः, ततः गोः अपि, आस्मा स्वं, व्यक्तं स्फुटम् , अधरीकृतःहीनीकृतः, न किम् ? अपि तु कृतः एव इत्यर्थः। पशुप्रणामात् पशोरपि निकृष्टता स्यात् , न चास्य किश्चित् फलमस्तीति भावः // 66 // ( ब्रह्मा आदि ) देवों तथा ( याज्ञवल्क्य व्यास आदि ) ब्राह्मणों के बनाये गये जो ग्रंथ (श्रुति-स्मृति-पुराण) .जिन तुमलोगों के लिए प्रमाणभूत है, उन ग्रन्थों के आदरमें गायोंको प्रणाम करते ( गायोंसे नम्र अर्थात् हीन होते) हुऐ तुमलोगोंने स्पष्टरूपमें उन ( पशु-गायों) से भी अपनेको नीचा (हीन ) नहीं कर दिया क्या ? अर्थात् तुमलोगोंने गायोंको प्रणाम कर अपनेको उनसे भी अवश्यमेव हीन कर दिया। [अथवा-देवों तथा ब्राह्मणों के बनाये गये जो ग्रंथ जिन तुमलोगों के लिए प्रमाण है, उन देवों तथा ब्राह्मणों के अर्थात यज्ञादि द्वारा देवोंके तथा दान-पूजनादिद्वारा ब्राह्मणों के आदर करनेमें मार्ग है अर्थात उन देवों तथा ब्राह्मणोंने यश-दानादिद्वारा अपना आदर कराने के लिए उन ग्रन्थोंको बनाया है, जिसे तुमलोग प्रमाण मानते हो। उन ग्रंथोंके कथनानुसार गौको प्रणाम करते हुए तुमलोगोंने उनसे अपनेको स्पष्ट हो हीन नहीं किया क्या ? अर्थात् अवश्यमेव पशुको प्रणामकर अपनेको उनसे हीन बना लिया। जो जिससे नष्ट होता है, वह उससे अवश्य ही हीन (तुच्छ ) माना जाता है; अत एव गौसे नम्र होकर तुमलोगोंने उस पशु गौसे भी अपनेको हीन बना लिया अर्थात तुमलोग पशुसे भी गये-गुजरे हो गये ] // 66 // . साधु कामुकत्ता मुक्ता शान्तस्वान्तैर्मखोन्मुखैः। सारङ्गलोचनासारां दिवं प्रेत्यापि लिप्सुभिः ? // 67 // साध्विति / शान्तस्वान्तैः संयतचित्तैः, विषयभोगनिवृत्तचित्तैरित्यर्थः। मखो. न्मुखैः क्रतुप्रवणैः, याज्ञिकैरित्यर्थः / प्रेत्य मृत्वाऽपि, अन्ये तु इह जन्मन्येव परस्त्रीकामुकाः, याज्ञिकास्तु परजन्मन्यपि कामुका इति अपेरर्थः। सारङ्गलोचनाः मृगाच्यः स्त्रियः एव, साराः श्रेष्ठांशाः यस्यां तादृशी, दिवं स्वर्ग, लिप्सुभिः लब्धुमिच्छुभिः सनिः कामुकता अभिस्विरतिः, कामपरतन्त्रता इत्यर्थः। साधु सम्यक् यथा तथा, मुक्ता ? त्यका ? इति काकुः, नैव त्यक्ता इत्यर्थः। इति सिदं विहाय साध्यप्रवृत्तेरुप. हासः। तस्मात् यागकाले ब्रह्मचर्यादिकम् नात्मानमात्रफळं न चान्यत् किमपि इति भावः // 7 //
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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