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________________ 1572 नैषधमहाकाव्यम् / तदेकाकिनोऽसहायस्य स्याद्भवेत् ; बहुभिरेकः पराजीयत इति युक्तमेवेत्यर्थः। यः सिंहिकायाः सुतो राहुः स पुनरेकोऽन्योऽस्य प्रतिभटः प्रतिमल्लः पराभावुको राहुरेव न त्वन्य इति / 'संप्रति' इति पाठे-अद्य पुनरस्यैकः प्रतिभटः यः सिंहिकायाः सुतः स्यात् एकाकिनोऽस्य स्वन्मुखपद्मः प्रतिद्वन्द्वी न भवति, अतुल्यस्वात् , किं त्वेकाकी राहुरेवास्य प्रतिभटो युक्त इत्यर्थः / किंच स्वशत्रुभूतादाहोरप्यस्यान्यः परा. जय इति महदस्य कष्टं प्राप्तमित्यर्थः। अथ च-हरिद्वर्णया हरेः सिंहस्य पन्या सिंहिकया प्रसूतस्य, तथा-मृगं शशं वा यं कञ्चन पशुं जठरे निक्षिप्य भक्षयित्वा स्थितस्य, अत एव संजातपुष्टशरीरस्य, अत एव हर्यक्षीभवतः सिंहतां प्राप्नुवतोऽस्य स्वन्मुखाद्यः पराजयोऽजनि स एकाकिनः केवलारपद्माद्जादेव पराजयः, सिंहस्य गजाङ्गो यथा तद्वदेव तन्महचित्रमित्यर्थः / अथ च-पद्मसंख्याकादेकस्य पराजयः, सिंहोऽप्येको बहुसंख्यैः पराजीयत एवेत्यर्थः। अथ च-पद्माच्छरभादष्टापदादेव भङ्गः सिंहस्य केवलमष्टापदादेव भङ्गः। पद्मचन्द्राभ्यां सकाशावन्मुखमधिकमिति भावः / 'हर्यतः केसरी हरिः' इत्यमरः। 'गजाब्जशरमाः पद्मा' इत्यनेकार्थे भोजः / प्रथमपक्षे 'हर्यति'शब्दाच्च्विः , द्वितीयपक्षे 'हर्यक्ष'शब्दादेव // 137 // (हे प्रिये !) मृग या ( मतान्तरसे ) शशकको पेट (पक्षा०-मध्यभाग) में रखकर स्थूल-शरीर बने हुए, इन्द्रपत्नी दिशा ( पूर्वदिशा) से उत्पादित अर्थात् पूर्वदिशामें उदयको प्राप्त तथा विष्णु भगवान्का ( वाम ) नेत्र होते हुए इस चन्द्रमाका तुम्हारे मुखकमलसे जो पराजय हुआ, वह एक (असहाय ) कमलसे ही हुआ ( यह चन्द्रमा अन्य पोंसे पराजित नहीं होता था, किन्तु उन्हें ही पराजित करता था, अतः एक तुम्हारे मुखकमलरूप एक पद्मसे इसका पराजित होना आश्चर्यजनक है। अथवा-कमलतुल्य तुम्हारे मुखरूप एक पद्मसे ही हुआ, अथवा-'पद्म' सङ्ख्यक तुम्हारे मुख-कमलसे ही हुआ-एक व्यक्तिका बहुत व्यक्तियोंसे पराजित होना उचित हो है)। जो राहु है, वह इस चन्द्रमाका एक प्रतिभट ( विजेता प्रतिमाह ) है। ( पाठा०-इस समय इस चन्द्रमाका एक पतिमट है, जो राहु है / एकाकी इस चन्द्रमाका प्रतिमट असमान होनेसे तुम्हारा मुख-पद्म नहीं है, किन्तु एकमात्र राहु ( इसका प्रतिभट = प्रतिद्वन्द्वी ) है। अथच-अपने शत्रुभूत राहुसे भी इस चन्द्रमाका पराजय होना महाकष्टजनक है। पक्षा०-हरिद्वर्णवाली सिंहिनीसे उत्पन्न मृग या शशकको उदरमें रखकर स्थूल शरीर बने हुए अत एव सिंहरूप ( सिंह नहीं होते हुए भी सिंह ) बनते हुए इस चन्द्रमाका जो तुम्हारे मुखकमलसे पराजय हुआ, वह एक 'पद्म' ( 'पद्म' जातीय ) हाथीसे हुआ ( अत एव ) सिंहका एक हाथीसे पराजय होना आश्चर्यकारक है। अथच-एक चन्द्रमाका पराजय 'पद्म' सङ्ख्यावालासे हुआ-अत एव एक व्यक्तिका पद्मसङ्ख्यावालोंसे पराजय होना उचित ही है, अथचउक्त प्रकारसे सिंह बनते हुए इसका पराजय 'पद्म' ( 'अष्टापद' नामक जन्तु-विशेष ) से हुआ-अत एव 'अष्टापद से सिंहका पराजय होना उचित ही है। तथा उक्तरूप इस सिंह
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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