SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 591
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 1288 नैषधमहाकाव्यम् / तुम्हारा यश कहते हैं क्योंकि शङ्ख तथा चन्द्रमा दोनों समुद्रोत्पन्न एवं शुभ्रवर्ण हैं ) जिस ( शङ्ख, पक्षा०-तुम्हारे यश ) का सहोदर अर्थात् समान कान्तिवाला ( पश्चिम दिशामें दृश्यमान ) वह द्विजराज ( चन्द्र ) स्पष्टरूपसे लिखित है अर्थात् निष्प्रभ तथा निष्क्रिय होनेसे लिखित चित्रके समान स्पष्टतः दृष्टिगोचर हो रहा है। तुम इस प्रभातकाल ( याआकाश ) में ( निष्प्रम होनेसे ) अनादरणीय ( अथवा-प्रत्यक्षतः निष्प्रभ दृष्टिगोचर होने से विश्वासयोग्य ), इस ( चन्द्रमा ) के वस्तुतः किरणनाशको भी देखो अर्थात् शङ्खके समान इस चन्द्रमामें भी किरण नहीं है यह तुम देखो और हरिण-सम्बन्धी जो ( चन्द्रमाका ) कलङ्क है, वह भी अत्यन्त मलिनता (कृष्णवर्णत्व ) का स्थान है ( शङ्ख के उदर में भी चन्द्रमाके उदर ( मध्यभाग) के समान ही मलिनता है, यह भी तुम देखो / ( अथ च( धर्मोपदेशरूप ) मङ्गलके लिए ( स्मृति ग्रन्थ की रचना करके शब्दको करनेवाले 'शङ्ख' नामक मुनिको हमलोग तुम्हारा यश कहते हैं ( यद्वा-तुम्हारे यशोवृद्धिरूपी मङ्गलके लिए ( पक्षा०-उक्त ग्रन्थानुसार आचरण करनेमे स्वर्गादिप्राप्तिरूप मङ्गलके लिए ) 'शङ्ख' नामक मुनिको..... ), जिस ( 'शङ्ख' नामक मुनि ) का सहोदर भाई ब्राह्मणश्रेष्ठ 'लिखित' नामक मुनि स्वर्गमें स्पष्टतः विद्यमान है यह सत्य है, इस ( शङ्ख तथा लिखित मुनियों के ) आचरणके विषयमें श्रद्धायोग्य ( चोरीके अपराधमें राजाज्ञाद्वारा ) लिखित' मुनिके साथ काटने को भी देखो अर्थात् ज्येष्ठ 'शङ्ख' मुनिके आश्रममें फलकी चोरी करनेसे राजाशाद्वारा लिखित' मुनिके हाथ काटना भी आचरणके विषयमें श्रद्धाकारक ( या-अश्रद्धाकारक ) है, यह भी तुम विचार करो / जो चोरीरूप कलङ्क (दुरपवाद ) अतिशय म्लानि (निन्दा ) का कारण है यह भी तुम देखो अर्थात् शानरूपी नेत्रसे देखकर समझो / अथवा-'नल पुण्यश्लोक है' इस प्रकार तुम्हारे यशके लिए हमलोग 'शङ्ख नामक मुनिको तुम्हारा यश कहते हैं, ( उनके कलङ्कयुक्त भाईको नहीं ), ") [ 'लिखित' मुनि सहोदर भाई 'शङ्ख' मुनिके आश्रममें फलको चुरानेपर राजाज्ञासे हाथ कटवाकर दण्डित हुए' यह कथा महाभारत के शान्तिपर्वके सुद्युम्नोपाख्यानमें देखनी चाहिये ] // 56 // ताराशङ्खविलोपकस्य जलजं तीक्ष्णत्विषो भिन्दतः सारम्भं चलता करेण निविडां निष्पीडनां लम्भितः / छेदार्थोपहृताम्बुकम्बुजरजोजम्बालपाण्डूभव च्छच्छित्करपत्रतामिह वहत्यस्तं गताओं विधुः / / 57 // तारेति / ताराः तारकाः एव, शङ्काः कम्बवः, दिनोदयेन ताराणां शुभ्रत्वेन प्रती. यमानत्वादिति भावः / तेषां विलोपकस्य विनाशकस्य, अन्तर्धायकस्येत्यर्थः। छेदकस्य च, तथा जलजं पधं शङ्खञ्च / 'जलज शङ्खपद्मयोः' इति विश्वः / भिन्दतः विदा. रयता, प्रस्फोटयत इत्यर्थः। करभूषणनिर्माणार्थ सच्छिद्रं कुर्वतश्च, तीक्ष्णस्विषः तिग्मांशोः, तीचणास्त्रधरस्य कस्यचित् शङ्खकारस्य च, सारम्भं सप्रयत्नम् , चलता
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy