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________________ एकविंशः सर्गः 1439 अद्वैत सिद्धान्तवाले) ! तुम (दीपकलिका-न्यायसे केवल ) क्षणिक प्रवाहको माननेवाले, त्रयी (ऋग्युजःसामवेद ) से परिचित ( उनके ज्ञाता) नहीं होनेपर भी विदान् हो (यहां वेदशानशून्यको विद्वान् होनेसे विरोध है, उसका परिहार यह है कि-) (सबको क्षणिक ही मानने तथा धर्माधर्ममोगव्यवस्थाका खण्डन करनेसे ) वेदत्रयोक्त प्रमाणको नहीं माननेवाले हो तथा विद्वान् हो, ( तथा-जो अद्वयवादो ( 'एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म' सिद्धान्तको माननेवाला ) वेदान्ती है वह प्रयोसे अपरिचित (वेदत्रयानमिव ) कैसे हो सकता है ? यह दूसरा विरोध है, इसका परिहार उपर्युक्त अर्थते ही हो जाता है / अथच-जो द्वित्वको स्वीकार नहीं करता उसे त्रित्वका स्वीकार नहीं करना ( उससे अपरिचित रहना ) उचित ही है।) तथा तुम ( सत , असत् , सदसत् , न सत् न असत्-इन) चार कोटियोंको नहीं स्वीकार करनेवाले हो, (जितेन्द्रिय होनेसे ) काम विजयी हो ( अथवा-जो ( कोटि ) चतुष्टय अर्थात् चार सङ्ख्या को नहीं मानता, उसे पांचका वाचक 'पञ्चन्' शब्दको नहीं मानना न्यायोचित ही है)। और तुम षडमिश (1 दिव्यचक्षुःश्रोत्र, 2 परचित्तज्ञान, 3 पूर्वनिवासका अनुसरण, 4 आत्मज्ञान, 5 आकाशगमन और 6 कायव्यूहसिद्धि-इन 6; अथवा-१ज्ञान, 2 शील, 3 क्षमा, 4 वीर्य, 5 ध्यान और 6 प्रशा-इन 6, अथवा-१ देशादिव्यवहित वस्तुको देखना, 2 देशादिव्यवहित शब्दको सुनना, 3 पूर्वजन्मको स्थितिका स्मरण, 4 दूसरेके मनकी बात जानना, 5 अविद्या-अहङ्कार-रोग-द्वेष-अभिनिवेशरूप पांच क्लेशोंका नाश और 6 अणिमादि-सिद्धि -इन 6 में ज्ञान करनेवाले अर्थात् इनके ज्ञाता ) हो; ऐसे तुम मेरी रक्षा करो // 6 // ( अतिशय सुन्दर एवं नितेन्द्रिय होनेसे ) कामविजयी आप (बुद्ध ) को क्षणिकता तथा आत्मनिषेधका साक्षात्कार करनेपर देवोंने जो आपके ऊपर पुष्पवृष्टि की, वह मानों आपसे पराजित कामदेवके हाथसे पुष्परूप बाण ही छुटकर गिर पड़ा / [ आपने कामदेवको जीत लिया तो देवोंने आपके ऊपर पुष्पवृष्टि की, वह आपसे भयात कामदेवके हाथसे शस्त्र ही गिर पड़े ऐसा ज्ञात होता था। विजेताके भयसे विजित व्यक्तिका मयात होना तथा उसके हाथसे शस्त्रोंका गिर पड़ना उचित है / कामदेवका शस्त्र पुष्प है, अत एव ऐसा रूपक किया गया है। बौद्ध-सिद्धान्तके अनुसार सब कुछ क्षणिक ही है तथा देइसे मिन्न नित्यस्थायी 'आत्मा' नामका कोई भी पदार्थ नहीं है ] // 7 // कामदेवने दृढ धैर्यरूप कवचसे युक्त तुम्हारे हृदय ( वक्षःस्थल, पक्षा०-मन ) में गिराकर पुष्परूप बाणों के अत्यन्त कुण्ठित होने से उन्हें छत्राकार मुखवाला बना दिया। [ जिस प्रकार कोई वोर वैरीके कवचयुक्त छातीपर बाण मारता है तो उस बाणका मुख (अग्रभाग) उस दृढ कवचपर कुण्ठित होकर छत्वाकार हो जाता है, उसी प्रकार कामदेवने धैर्यरूपी दृढ कवचयुक्त आपके हृदयमें तीक्ष्णाय वाण मारा तो उन बाणोंका अग्रभाग अत्यन्त कुण्ठित होकर छत्त्राकार हो गया / कामदेवके बाणों के पुष्परूप होनेसे तथा 'पुष्पोंके विकसित होनेपर छत्त्राकार होनेसे उक्त उत्प्रेक्षा की गयो है। अथच-पुष शरीर-स्पर्श करनेपर
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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