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________________ 1440 नैषधमहाकाव्यम् / जिस प्रकार सुखद होते हैं, उसी प्रकार काम-प्रक्षिप्त पुष्पबाण भी तुम्हें जितेन्द्रिय होनेसे सुखद ही हुए / आपके समान जितेन्द्रिय कोई भी जगत्में नहीं है ] // 8 // यदि ब्रह्मा तुम्हारी स्तुति करनेमें चतुरता करे तो वह चतुरास्य (चतुर मुखवाला, पक्षा०-चार मुखोंवाला ) कहलावे, अथवा-जिस कारण ब्रह्मा तुम्हारी स्तुति करनेमें चतुरता करता है, अत एव चतुरास्य (चतुर मुखवाला, पक्षा० चार मुखोंवाला ) कहलाता है ( तुम्हारी स्तुतिका ही यह सत्परिणाम है कि ब्रह्मा चतुरास्य ( चतुरमुखवाला, पक्षा०चार, मुखवाला ) कहलाया; अन्यथा वह 'चतुरास्य' कभी नहीं कहलाता)। [ सर्वज्ञ तुम्हारे जागरूक रहनेपर अपनेको सर्वज्ञ कहनेसे शिवजी नीलकंठ हो गये यदि शिवजी, तुम्हारे सर्वश रहनेपर भी अपनेको सर्वश नहीं कहते तो वे लज्जासे नीले ( काले ) कण्ठवाले नहीं होते, किन्तु तुम्हारे साथ ऐसी स्पर्धा करनेसे ही वे नीलकण्ठ हो गये, विषपानसे नीलकण्ठ नहीं हुए / लोकमें भी कोई व्यक्ति किसी महान् व्यक्ति के साथ स्पर्धा करता है तो उसके सामने लज्जासे उसका कण्ठ ( मुख ) काला हो जाता है। ब्रह्मा तथा शिवसे भी आपका प्रभाव श्रेष्ठ तम है / इन चार श्लोकोंसे नलने बुद्धावतारकी स्तुति की है / वेदविरोधी बुद्धकी स्तुति करने में यह कारण है कि दैत्योंसे पराजित देवलोग ब्रह्माकी शरणमें गये और उनकी स्तुतिसे प्रसन्न विष्णु भगवान्ने बुद्धावतार लेकर दैत्योंको वेदविरोधी उपदेशोंके द्वारा धर्मभ्रष्टकर दिया, इसीसे उन्हें जीतने में देवलोग समर्थ हुए ] // .9 // ( अब दो श्लोकोंसे दशम ( कल्कि ) अवतारकी स्तुति करते हैं-) युद्धमें धूमके समान श्यामवर्ण तलवारको ( अथवा-कालरूप तलबारको धूमके समान ) धारण करते हुए, म्लेच्छोंके लिए प्रलयाग्निरूप 'कल्कि' नामक दशवें अवतारवाले तुम मेरे दशविध पापोंको दूर करो। [ जो स्वयं कल्कि' कल्कवाला = पापवाला है, वह दूसरेके कल्कों = पापोंको कैसे दूर कर सकता है ? इस विरोधका परिहार-'कल्कि' शब्दको 'विष्णु' वाचक मानकर करना चाहिये / दशविध पाप ये हैं-विना दिये दूसरेकी वस्तुको लेना, यज्ञातिरिक्त हिंसा करना और परस्त्री सम्भोग-ये 3 कायिक; कटुभाषण, असत्य, चुगलखोरी और असम्बद्ध प्रलाप-ये 4 वाचिक तथा दूसरेकी वस्तु लेने की इच्छा, दूसरेके अनिष्ट करनेका विचार होना और दूसरेपर व्यर्थ दोषारोपण-ये 3 मानसिक; इस प्रकार (3+ 4+3 = 10 ) दश प्रकारके पाप होते हैं / अथवा-दशों इन्द्रियोंके द्वारा किये गये दश पाप हैं / अथवा-गर्भावस्थाके दश मासोंमें होने वाले कष्ट-विशेषरूप 'दश पाप' यहां अभीष्ट हैं ] // 10 // विष्णुयशको उत्पन्न करनेवालेका 'विष्णु' यह नाम ( दुष्टोंको ढूढ़ने के लिए ) पृथ्वी में घूमते हुए, विष्णु ( व्यापक, पक्षा०-'विष्णु' नामक ) और युद्धजन्य धूलियोसे पाण्डुर ( श्वेत ) वर्ण शरीरधारी यशके समान आपसे ही सार्थक हुआ है / [ यद्यपि 'विष्णु' नाम पहले हुआ है तथा 'कलिक' अवतार पीछे हुआ है, तथापि भविष्यकालकी अपेक्षा या कल्पान्तरकी अपेक्षा उक्त विरोधाभाव समझना चाहिये ] // 11 //
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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