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________________ 1570 नैषधमहाकाव्यम् / देव सर्वश्रेष्ठो जात इत्यर्थः / 'तेनेव' इति पाठे-उत्प्रेक्षा / 'बुद्धदेव्या मता तारा॥१३॥ हे तन्वि ! ब्रह्माने जो 'जिन' (आदि पुरुष विष्णु भगवान्) की आज्ञासे ताराओंके विहार करनेका स्थान अर्थात् आकाश ( अतिशय शीतल मध्यभागमें मृगसे युक्त चन्द्रमन्डलको किया अर्थात् उक्तरूप चन्द्रमाको आकाशमें स्थापित किया, उसी पुण्यसे वे देवोंमें श्रेष्ठ हुए (पक्षा०-ब्रह्माने जो बुद्ध के सिद्धान्तको मानकर तारा ( बुद्धदेवकी पत्नी) की विहारभूमि ( पूजास्थान ) में अतिशय शीतल ( या-स्वच्छतम होनेसे हिमाचलस्वरूप ), कस्तूरी के सौरभसे युक्त कर्पूरमय राशिको स्थापित किया, उसी पुण्यसे...)। [बौद्धसिद्धान्तानुसार बुद्धदेवके प्रासाद ( पूजास्थान ) में कर्पूर तथा कस्तूरीकी राशि रखनेवाला व्यक्ति स्वर्गमें देवोंमें श्रेष्ठ होता है ] // 134 // इन्दुं मुखाद्बहुतृणं तब यद् गृणन्ति नैनं मृगस्त्यजति तन्मृगतृष्णयेव / अत्येतिमोहमहिमा न हिमांशुबिम्बलक्ष्मीविडम्बिमुखि ! वित्तिषु पाशवीषु।। ___ इन्दुमिति / हे हिमांशुबिम्बस्य लक्षम्याः शोभाया विडम्बि स्वस्मान्न्यूनत्वात्प. रिहासकारि ततोऽप्यधिकशोभं मुखं यस्यास्तादृशि भैमि ! पण्डिता इन्दुं तव मुखा. रसकाशास्वन्मुखमपेचय वा बहुतृणमीषदसमाप्तं तृणं, तृणत्वमपि यस्य पूर्ण न संपन्नं, तृणादपि निःसारमिति यावत् , अथ च-बह्वधिकं तृणं यस्मात् तृणादपि निःसारं यद्यस्माद् गृणन्ति, तत्तस्माद्धेतोर्मंग एनं चन्द्रं मृगसंबन्धिन्या तृष्णया कोमलतृणका वलाभिलाषेणेव, अथवा-चन्द्रे प्रयुक्तस्य 'बहुतृण'शब्दस्य बहु च तत्तणं च, बहूनि तृणानि यस्मिस्तादृशमिति वेत्येवंरूपार्थग्रहणरूपया भ्रान्त्येव न त्यजति / मृगो हि बहु यत्तणं बहुतृणं देशं वा न मुञ्चति / नन्वनुभवे सत्यप्यासंसारं कथं भ्रान्तिरित्याशङ्कयार्थान्तरन्यासमाह-पाशवीषु पशुसंबन्धिनीषु वित्तिषु ज्ञानेषु विषये मोहमहिमा भ्रान्तिबाहुल्यं नारयेति बहुकालातिक्रमेऽपि नापयाति। पशवो हि सर्वदा मुढा एवेत्यद्यापि मृगस्य भ्रान्ति पयाति, तस्मादेनं न त्यजतीति युक्तमि. त्यर्थः / 'वृत्तिषु' इति पाठे-व्यापारेषु / मुखात , ल्यब्लोपे पञ्चमी / 'बहुतृणं, पने ईषदसमाप्तौ 'विभाषा सुपो बहुच-' इति बहुच // 135 // हे चन्द्रबिम्बकी शोभाको तिरस्कृत का नेवाले मुखवाली ( दमयन्ती ) ! विद्वान् लोग जिस कारण तुम्हारे मुखकी अपेक्षा तृणतुल्य (निःसार-अत्यन्त तुच्छ, पक्षा०-बहुत तृणोंसे युक्त ) चन्द्रमाको कहते हैं, उस कारण मानो मृगतृष्णा, ( पक्षा०-मृग-सम्बन्धी लोम ) से वह मृग इसे ( चन्द्रमा) को नहीं छोड़ता है, क्योंकि पशुवृत्तिमें मोह दूर नहीं होता है। [दूसरे लोगोंका भ्रम दो-चार वार वञ्चित होनेपर दूर हो जाता है, किन्तु पशुवृत्तिवालेका भ्रम बार-बार वन्चित होनेपर भी दूर नहीं होता, फिर मृग तो साक्षात् पशु है अत एव वह भ्रम नहीं होनेसे चिरकालसे चन्द्रमामें ही तृण पानेके लोमसे निवास करता है ] // 135 //
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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