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________________ 1102 नैषधमहाकाव्यम् / इति शेषः / कूटं कपटम् , आश्रित्य अवलम्ब्य, साक्षीभवन्नपि प्रत्यक्षद्रष्टा सन् अपि, अग्निसाक्षिके विवाहे व्यवहारे च साक्षीभवन्नपि इति भावः / तदुद्वाहे तयोः दमय. न्तीनलयोः विवाहे, कूटसाक्षिणः मिथ्यासाक्षिणः, क्रियां चेष्टितम् , नलेन दमयन्ती नोढा किन्तु अन्येनोढा इत्याद्यनृतवचनव्यापारमित्यर्थः। किं कथम , नावहत् ? नावलम्बत ? शिखिनस्तागकूटसाक्षिदाने च भवतां दमयन्तीलाभः स्यादेव यतः कूटसाक्षी परकीयं वस्तु अन्यरम दापयतीति भावः // 128 // दारुण ( प्रज्वलित होनेसे भयङ्कर, पक्षा०-क्रूरकर्म करनेवाला) यह अग्नि कूट (काष्ठराशि, पक्षा०-कपट ) का आश्रयकर साक्षी होता हुआ भी उस विवाहमें ( अथवाउन दोनों के, या-उस नलके, या-उस दमयन्तीके विवाहमें; पक्षा०-उस साक्षित्वके निर्वाह करने में ) कपट साक्षी के कार्यको क्यों नहीं ग्रहण किया ? / [जिस प्रकार कर कर्मा पुरुष कपटपूर्वक किसी व्यवहार (मुकदमे ) में साक्षी होकर भी उसके निर्वाह ( यथार्थत्वको पूरा) करने में कपटी साक्षी बनकर दूसरेकी वस्तु दूसरेको दिलवा देता है,, उसी प्रकार दारुण यह अग्नि काष्ठ-राशिको पाकर उनके विवाहमें साक्षी होता हुआ मी कपटी साक्षी का काम क्यों नहीं किया ? अर्थात यह क्यों नहीं कह दिया कि 'दमयन्तीका नल के साथ विवाह नहीं हुआ है, किन्तु इस ( आप लोगोंमेंसे किसी एक ) देवके साथ हुआ है; यदि वह ऐसा कहता तो अवश्य ही वह दमयन्ती आप लोगों से किसी एक.को प्राप्त हो जाती, परन्तु इसने ऐसा नहीं किया, अत एव अत्यन्त अनुचित किया ] // 128 / / अहो ! महःसहायानां सम्भूता भवतामपि / क्षमैवास्मै कलङ्काय देवस्येवामृतद्युतेः / / 129 / / अहो इति / भो देवाः ! महःसहायानां तेजस्विनामपि, भवतां युष्माकम, अमृ. तद्युतेः सुधाकरस्य, देवस्य इन्दोः इव, क्षमा क्षान्तिः एव, अन्यत्र-क्षितिः एव 'क्षितिक्षान्त्योः क्षमा' इत्यमरः / अस्मै इन्द्रादिदेवेषु सत्स्वपि दमयन्त्या नलो वृत इति स्वीकृत परिभवरूपाय, कलङ्काय अपवादाय, अयशसे इत्यर्थः / अन्यत्र-कलकाय अङ्काय, कृष्णवर्णचिह्नविशेषायेत्यर्थः / चन्द्रे श्यामिका भूच्छायवेति केचित् / 'कलङ्कोऽङ्कापवादयोः' इत्यमरः / सम्भूता सञ्जाता, इत्यहो! खेदे / क्षमाया गुणभूतत्वेऽपि समयविशेष क्षमाकरणात् स्त्रियः अपि न गणयन्तीति भावः // 129 // तेजस्वी भी आप लोगोंकी ( अथवा-तेजस्वी आप लोगोंकी भी) क्षमा ही उस प्रकार इस कलङ्क ( दमयन्तीने इन्द्रादि देवोंका त्यागकर नलको वरणकर लिया ऐसे अपयश, या-नलकृत आपलोगोंके अनादर, अथवा-लज्जाके कारण हमलोगों के समक्ष विमुखता ग्रहणरूप कलङ्क) के लिये हुई, जिस प्रकार तेजस्वी देव चन्द्रमाको कलङ्क (कालिमा) के लिए पृथ्वी होती है, अहो, खेद है। [ यदि आप लोग क्षमा नहीं करते तो अपने तेजसे नलको पराभूतकर इस प्रकार कलङ्कित नहीं होते, अतएव गुणरूप भी क्षमा अस्था
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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