________________ नैषधमहाकाव्यम् / इस ( दूर-दूरसे उन राजाओं के स्वयंवरमें आने ) के बाद दमयन्तीके वैराग्यको ( अपने-अपने विषयमें ) निश्चितकर अधिक श्वास लेते हुए पहले आये हुए राजाओंसे ( अथवा-दमयन्ती द्वारा एकादश सर्गमें वर्णित अपना-अपना त्याग देखकर ) अधिक श्वास लेते हुए पहले आये हुए राजाओंसे और ( उन पूर्वागत राजाओंके अधिक श्वासको देखकर उनमें ) दमयन्तीके अनुराग न होनेका अनुमान किये हुए, ( अत एव शृङ्गारादि चेष्टाओंसे ) प्रकाशमान, अगाध आनन्द समुद्रवाले ( दमयन्तीने अभीतक किसी राजाका वरण नहीं किया है, अब तो यह हमलोगों को ही वरण करेगी इस विचारसे ) अत्यन्त हर्षित नवीन राजाओंसे युक्त उस सभाके होनेपर दमयन्तीका स्वयंवर आरम्भ हुआ // 2 // चलत्पदस्तत्पदयन्त्रणेङ्गितस्फुटाशयामासयति स्म राजके / श्रमं गता यानगतावपीयमित्युदीर्य धुर्यः कपटाज्जनी जनः / / / / चलदिति / चलत्पदः क्वचित् स्थितिकालेऽप्युत्तमाश्ववदेकत्रानवस्थितचरणः, इति भारवाहिकस्वभावोक्तिः, धुरं वहतोति धुर्यो जनः शिविकावाहिजनः, 'धुरो यडढकी' इति यत्-प्रत्ययः तस्या भैम्याः, पदयन्त्रणेगिन्तेन पदेन शिविकापटान्तवर्तिचरणेन, यत् यन्त्रणं धुर्यजनस्य पीडनं, तदेव इङ्गितम् अवस्थापनार्थं हृद्तभावः तेन, स्फुटः आशयः राजदर्शनार्थम् उपवेशनाभिप्रायो यस्यास्तां, जनीं वधूं दम यन्ती 'जनी सीमन्तिनीवध्वोः इति विश्वः, इयं बाला दमयन्ती, यानेन गतावपि गमने कृतेऽपि, श्रमं गता श्रान्ता, इति उदीयं कपटात् श्रमव्याजात् , राजके राजस. मूहमध्ये, आसयति स्म उपवेशयामास, णिजन्तादास-धातोः स्मेन योगेऽतीते लट॥३॥ __ चलते हुए पैरवाले अर्थात् गमनशील ( अथवा-रुके रहनेपर भी पैर चलाते हुए ) भारवाहक लोगोंने 'सवारीसे चलनेमें भी यह ( दमयन्ती) थक गयो है ऐसा कपटपूर्वक कहकर उस ( दमयन्ती) के पैरकी प्रेरणाकी चेष्टासे (इस राजाको मैं देखना चाहता हूँ, अतः सवारीको यह रोको) स्पष्ट आशयवाली उस दमयन्तीको राज-समूहमें स्थापित किया। [ एक स्थानमें खड़े रहनेपर भी पैरका चलाते रहना उत्तम भारवाहकोंका स्वभाव होता है / मारवाहकोंने दमयन्तीकी सवारीको राज-समूहके बीचमें रोका ] // 3 // नृपानुपक्रम्य विभूषितासनान् सनातनी सा सुषुवे सरस्वती। विगाहमारभ्य सरस्वतीः सुधासरःस्वतीवाद्रतनूरनूस्थिताः / / 4 / / नृपानिति / सनातनी चिरन्तनी, सना-शब्दात् 'सायंचिरम-' इत्यादिना ट्यु-प्रत्यये डीप , सा सरस्वती वाग्देवता, विभूषितासनान् अलङ्कृतसिंहासनान् , सिंहासनोपविष्टान् इत्यर्थः, नृपान् उपक्रम्य उहिश्य, सुधासरःसु अमृतसरसीसु, विगाहम् आरभ्य अवगाहं प्राप्य, अनु पश्चात् , अविलम्बनेस्यर्थः, उस्थितर तस्मानिर्गताः, अत एव अतीवार्द्रतनूः अमृतास्वाङ्गाः, सर्वाङ्गष्वमृतवर्षिणीरित्यर्थः, सरस्वतीगिरः, सुषुवे उवाच / अत्र उत्प्रेक्षावाचकेवादिप्रयोगाभावात् , गम्योप्रेक्षा॥