________________ 1524 नैषधमहाकाव्यम् / अकर्णनासस्त्रपते मुखं ते पश्यन्न सीतास्यमिवाभिरामम् / रक्तोस्रवर्षी बत लक्ष्मणाभिभूतः शशी शूर्पणखामुखाभः ? // 46 / / ____ अकर्णेति // हे प्रिये ! शशी सितास्यमिवाभिरामं कर्णादिकृतशोभं ते मुखं पश्यन्सन्न पते न लज्जते बत चित्रम् / किंभूतः ? न विद्यते कर्णनासं स्वभावादेव यस्य सः / तथारक्ता आरक्ता उम्राः किरणास्तद्वर्षणशीलः, शोणश्चासौ किरणवर्षी च तादृशो वा / तथा,-लक्ष्मणा कलङ्केनाभिभूत आक्रान्तमध्यः, अत एव शर्पणखाया रावणभगिन्या मुखवदाभा यस्य स तद्वदनतुल्यः; एषु लज्जाकारणेषु सरस्वपि न लज्जते तच्चित्रमित्यर्थः / स्वन्मुखं पश्यन्नप्युदयस्येव, स्वं प्रकाशयति च, तस्मादेव न लज्जते, इति ज्ञायते / अन्यो ह्यकर्णनासो लज्जते, अयं तु तादृशोऽपि न लज्जत इत्यपि चित्रमेव / शर्पणखामुखमपि लचमणेन पराभूतं छिन्नकर्णनासत्वाद्गुधिरवर्षि सद्राममभि लक्षीकृत्य वर्तमानम् , अत एवाभि भयरहितं च, सीतामुखं पश्यदपि न लज्जते, तदनन्तरमपि प्रौढिवादप्रकटनात् 'अभि' शब्दस्यावृत्तिः कार्या। 'लक्ष्मशब्दो नान्तः, पक्षेऽकारान्तः // 49 // (हे प्रिये !, स्वभावतः ) नाक-कानसे होन, रक्तवर्णवाली ( अथवा-उदयकालीन होनेसे स्वयं रक्तवर्ण, तथा ), किरणोंको बरसाता हुआ और कलङ्क ( मृगाकार काले चिह्न) से आक्रान्त यह चन्द्रमा सीताके मुखके समान सुन्दर तुम्हारे मुखको देखता हुआ उस प्रकार लज्जित नहीं हो रहा है। जिस प्रकार (लक्ष्मणजीके द्वारा काटे जानेसे ) नाककानसे रहित, लाल तथा रक्तको बरसाता ( बहाता ) हुआ तथा लक्ष्मणजीसे पराभूत शूर्पण. खाका मुख रामचन्द्रको लक्ष्यकर स्थित तथा निर्भय सीताजीके मुखको देखता हुआ नहीं लजित हुआ, यह आश्चर्य है / [ अपनेसे श्रेष्ठ उक्तरूप तुम्हारे मुखको देखकर हीन चन्द्रमाको लज्जित होना चाहिये था, किन्तु वह नहीं लज्जित होता यह उस प्रकार आश्चर्य है, जिस प्रकार उक्त रूप होनेसे हीनतम शुर्पणखाका मुख श्रेष्ठ सीताके मुखको देखकर भी नहीं लज्जित हुआ। सत्ययुगमें स्थित नलका अपनेसे बाद त्रेता युगमें होने वाले सीता, राम, लक्ष्मण तथा शूर्पणखा आदिका वर्णन कवि का कल्पान्तरकी अपेक्षा समझना चाहिये ] // 49 // पौराणिक कथा-पिताकी आज्ञासे 14 वर्षके लिये वनवास करते हुए अमिराम रामचन्द्र के साथ विवाहकी इच्छा करती हुई रावणकी बहन शूर्पणखाके नाक कानको लक्ष्म. णजीने काट लिया था। यह कथा वाल्मीकि रामायण आदि अनेक ग्रन्थों में मिलती है। आदत्त दीप्रं मणिमम्बरस्य दत्त्वा यदस्मै खलु सायधूर्तः / रज्यत्तुषारद्यतिकूटहेम तत्पाण्डु जातं रजतं क्षणेन / / 50 / / आदत्तेति // हे भेमि ! सायंकालरूपो धूर्तो यद् रज्यन्नुदयकाले रक्कीभवंस्तुषारधतिश्चन्द्र एव लेपवशाद्रज्यत् कूटहेम कृत्रिमं सुवर्णमस्मै गगनाय मूल्यरूपेण दत्त्वा