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________________ द्वाविंशः सर्गः। 1523 अस्या इति // हे भैमि ! अस्याः सुराधीशस्येन्द्रस्य दिशः यदिदमम्बरं गगनं वस्त्रं च पुरा चन्द्रोदयात् पूर्व रजन्या राम्या हरिद्रया च पीतं तमाव्याप्तस्वाददृश्यं पीतवर्ण चासीत् , तेनाम्बरेण गगनेन वस्त्रेण चाधुना चन्द्रोदये चन्द्रांशूनां चूर्णैः श्लक्ष्णसूचमतेजोलेशैः कर्तृभियंतिचुम्बितेनातितरां स्पृष्टेन सता चद्रांशुवच्छुभ्रतरेण चूर्णेन ताम्बूलसाधनचूर्णद्रव्येण स्पृष्टेन सता नूनमलोहितायि आरक्तीभूतम् / हरिद्रया पीतवर्ण वस्त्रं चूर्णेन युक्तं सद्रक्तं भवति / देवेन्द्रस्त्रियाश्च वस्त्राणि नाना. वर्णानि युक्तानि / चन्द्रांशव एव चूर्णमिति वा / अलोहितायि, लोहितादिक्यषन्ताद्भावे चिण // 47 // इस सुराधीशकी दिशा अर्थात् पूर्व दिशाका जो आकाश ( पक्षा०-कपड़ा, चन्द्रोदयसे) पहले रात्रि ( पक्षा ०-हल्दी ) से पीत (अन्धकारसे पोया गया = अदृश्य, पक्षा०-पीले रंगवाला ) था, इस समय (चन्द्रोदय होनेपर ) चन्द्र-किरणके समान (या-चन्द्र-किरणरूप ) चूनेसे संस्पृष्ट वह (आकाश, पक्षा०-कपड़ा) लाल हो गया / [ हल्दीसे रंगे गये पीले कपड़ेमें चूनेका संसर्ग होनेसे लाल होना लोकप्रसिद्ध है; जो देवताओंके राजा (इन्द्र) की (पत्नीरूपिणी पूर्व) दिशा है, उसके कपड़े (पक्षा०-आकाश) को पीला, लाल अर्थात् अनेक वर्ण होना उचित ही है ] // 47 // तानीव गत्वा पितृलोकमेनमरजयन् यानि स जामदग्न्यः / छित्त्वा शिरोऽस्राणि सहस्रबाहोर्विस्त्राणि विश्राणितवान् पितृभ्यः // 4 // ____तानीति // सोऽतिवीरो जामदग्न्यः सहस्त्रबाहोः शिरश्छित्त्वा विनाण्यामगन्धीनि यान्यस्त्राणि रक्तानि पितृभ्यो जमदग्न्यादिभ्यो विधाणितवान्दत्तवान् / य रक्तः प्रति. ज्ञातं पितृतर्पणं कृतवान् / तान्येव रक्तानि मन्त्रबलास्पितृलोकं गवा प्राप्य पितृलो. काधीन (श) मेनं चन्द्रमरजयन् रक्तं चकरिव / 'चन्द्रो वै पितृलोकः' इति श्रुतेः / चन्द्रो रक्तवर्णो दृश्यत इति भावः / परशुरामः सहस्त्रार्जुनं हत्वा तदीयै रक्तैः पितृत. पणं कृतवानितीतिहासः / 'विस्त्रं स्यादामगन्धि यत्' इत्यमरः // 48 // परशुरामजीने सहस्रार्जुनके शिरको काटकर जिन कच्चे गन्धवाले रक्तोंको ( जमदग्नि आदि ) पितरों के लिए दिया, वे ही ( रक्त) मानो ( मन्त्र बलसे ) पितृलोकमें जाकर इस (चन्द्रमा ) को रक्तवर्ण कर दिये हैं। [चन्द्रको पितृलोकमें निवास करनेसे वहां पहुंचे हुए रक्तोसे उस चन्द्रका लाल होना युक्तियुक्त ही है ] // 48 // पौराणिक कथा-परशुरामजीके आश्रमसे बाहर जानेपर सहस्रार्जुनने जमदग्निके शिरको काट लिया, पुनः परशुरामजीने बाहरसे लौटकर जब पिताके मारे जानेका समाचार सुना, तब प्रतिज्ञा की कि सहस्रार्जुन ( एवं उसके वंशवाले समस्त क्षत्रियों ) के रक्तसे पितृतर्पण करूंगा। तदनुसार ही उन्होंने सहस्रार्जुन (को तथा 21. वार अन्य समस्त क्षत्रियों ) को मारकर उस रक्तसे पितृतर्पणकर अपनी प्रतिशा पूर्ण की।। 48 //
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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