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________________ 1522 नैषधमहाकाव्यम् / निष्पाद्यस्य वस्तुनो निम्नोन्नतभागा विपरीता एवोकीर्यन्ते / तत्र च नेत्राद्यवयवा दुज्ञेया भवन्ति, तनिर्मिते मुखादौ च दृश्या भवन्ति, तस्मादेवं तयंत इत्यर्थः। उदितमात्रश्चन्द्रोऽत्युत्तमसुवर्णसञ्चकवद्रको दृश्यत इति भावः / उत्तमं सुवर्ण रक्तवर्ण भवति / 'आननम्' इति जात्येकवचनम् // 46 // ब्रह्मा अपनी प्रभासे तिरस्कृत कलङ्कवाले अतिशय उत्कृष्ट किरणों (पक्षा०-उलटा बनाये गये चिह्नोंकी रचना) से स्पष्ट नहीं दिखलायी पड़ते हैं, नेत्र आदि (नासिका, अधर..."") जिसके ऐसे चन्द्रमारूप सोनेके साँचेसे स्त्रियोंके मुखको रचते हैं क्या ? / [जिस प्रकार नेत्र नासिका आदि उलटा खोदनेसे स्पष्ट नहीं मालूम पड़ते हुए नेत्रादि वाले सांचेसे कोई मूर्ति ढाली जाती है तो उस ढाली गयी मूर्ति आदिमें नेत्रादि स्पष्ट दिखलायी पड़ने लगते हैं, उसी प्रकार गोलाकार उदयकालीन होनेसे सुवर्णवत् रक्त-पीतवर्ण तथा कलङ्कको पराभूत करनेवाली किरणको उत्कृष्टतासे (पक्षा०-उलटे खोदे गये चिह्नों ) से स्पष्ट नहीं दिखलायी पड़नेवाले नेत्रादिवाले चन्द्ररूपी सोने के सांचेसे खियोंके मुखको ब्रह्मा ढालते हैं क्या ? / उदयकालीन चन्द्र सोनेके समान रक्त-पीतवर्ण होता है / चन्द्रको स्त्रियों के मुखका सुवर्णमय सांचा होनेसे उसमें उलटा खोदे गये नेत्रादिको स्पष्ट नहीं दिखलायी पड़नेको उत्प्रेक्षा की गयी है ] // 46 // अनेन वेधा विपरीतरूपविनिर्मिताङ्कोत्किरणाङ्गकेन / त्वदाननं दृश्यहगाद्यलक्ष्यहगादिनवाकृत सञ्चकेन / / अनेनेति // वेधाः विपरीतरूपं यथा तथा विनिर्मितमुक्तविधमङ्कोस्किरणं यत्र तादृशमङ्गं यस्य / तेन / तथा,-अलच्यगादिनानेन चन्द्रेणेब सञ्चकेन दृश्यं सुन्दरः तरम् , अथ च,-प्रत्यक्षदर्शनयोग्यं गादि यस्य तादृशं त्वदाननमकृत / स्वदानन· मेवाकृत न स्वन्याननमिति वा / अयमेवात्र श्लोके विशेषः / अयं श्लोकः क्षेपकः // ब्रह्माने, उलटा बनाये गये चिह्नोंकी रचनावाले अङ्ग हैं जिसमें ऐसे तथा ( उलटा चिह्न करने के कारण ही ) स्पष्ट नहीं दिखलायो देते हुए नेत्रादिवाले इस ( चन्द्ररूपी ) स चेसे ही स्पष्ट देखने योग्य ( या-मनोहर ) नेत्रादिवाले तुम्हारे मुखका बनाया है / [इस श्लोकका आशय पूर्व श्लोकके समान ही है, केवल विशेष इतना ही है कि पूर्व इलोकमें स्त्रियों के मुख की रचना करनेको कहा गया है तथा इस श्लोकमें केवल दमयन्तीके ही मुखकी रचना करनेको कहा गया है। इससे अन्य स्त्रियोंका मुख उक्त चन्द्ररूपी सांचेमें नहीं ढाले जानेसे सामान्य सौन्दर्य युक्त तथा तुम्हारा मुख उक्तरूप चन्द्ररूपी सांचेमें ढाले जानेसे अन्य स्त्रियों के मुखसे अधिक सौन्दर्य युक्त है, यह भी सूचित होता है / पूर्व श्लोकके समान हो अर्थ होनेसे टीकाकार इसे क्षेपक मानते हैं ] // अस्याः सुराधीशदिशः पुराऽसीत् यदम्बरं पीतमिदं रजन्या / चन्द्रांशुचूर्णव्यतिचुम्बितेन तेनाधुना नूनमलोहितायि / / 47 //
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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