SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 824
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वाविंशः सर्गः। 1521 तिलक लगाकर उस अतिथिका सत्कार करना कर्तव्य होता है, अत एव अथितिरूपमें आये हुए बड़े भाई चन्द्रके मस्तकमें सिन्दूर-तिलक लगाकर सत्कार करना सदा पूर्व दिशामें निवास करनेवाले ऐरावतको उचित ही है ] // 44 // यत्प्रीतिमद्भिर्वदनैः स्वसाम्यादचुम्बि नाकाधिपनायिकानाम् | ततस्तदीयाधरयावयोगादुदेति बिम्बारुणबिम्ब एषः // 45 // यदिति // वृत्तत्वादिगुणयोगेन स्वसाम्यात्प्रीतिमद्भिर्नाकाधिपस्येन्द्रस्य नायि. कानां वदनैयद्यस्मात्स्वसविधमागत एष चन्द्रोऽचुम्बि चुम्बितः, तस्माद्धेतोस्तस्मा. च्चुम्बनाद्वा तदीयानां देवेन्द्रनायिकानामधरेषु न्यस्तो यावोऽलक्तकस्तस्य योगात्संबन्धादेतोर्बिम्बवत्पक्वबिम्बीफलवदरुणं बिम्बं मण्डलं यस्य तादृश उदेति / अन्योऽपि समानः सखा सविधमागतः सन् सख्या प्रीत्या चुम्ब्यसे / 'मुखैः' इति बहुवचनेन तत्र प्रदेशे युगपदेव चुम्बनाबहुलयावस्योगात्सकलस्यापि चन्द्रबिम्बस्य रक्तत्वं युक्त. मिति सूचितम् // 45 // ___ आह्लादक तथा गोलाकारादि गुणोंसे अपनी समानता होने के कारण इन्द्रकी नायिका. ओंके मुखोंने जिस कारण ( पूर्व दिशामें उदयोन्मुख होते समय समीपस्थ होनेपर ) चन्द्रः माका चुम्बन किया, उस कारण (या-उस चुम्बनके करने ) से उन (इन्द्रकी नायिकाओं) के अधरों के यावक ( अधर रंगनेके अलक्तक) के संसर्गसे बिम्ब फलके समान लाल मण्डलवाला यह चन्द्रमा उदित हो रहा है। [इन्द्रकी नायिकाएँ सदा पूर्व दिशामें रहती हैं, और इस अन्द्रमाको उसी दिशामें उदित होते हुए देखकर चन्द्रमामें आह्लादक एवं गोलाकार आदि गुणोंको अपने मुखके समान देखकर स्नेहपूर्वक वे नायिकाएँ चन्द्रमाका चुम्बन करती हैं और उसके बाद शीघ्र ही उदय होनेसे कुछ क्षण पहले लगे हुए उन इन्द्रनायिकाओं के अधरके रागसे यह चन्द्रबिम्ब अरुण दृष्टिगोचर होता है ] लोकमें भी कोई व्यक्ति अपने समान गुणवाले व्यक्तिके आनेपर उसका स्नेहपूर्वक चुम्बनादि करता है। उदयको प्राप्त यह चन्द्रमण्डल रक्तवर्ण दृष्टिगोचर हो रहा है ] // 45 // विलोमिताङ्कोत्किरणाद् दुरूहहगादिना दृश्यविलोचनादि / विधिविधत्ते विधुना वधूना किमाननं काम्ननसञ्चकेन ? / / 46 / / विलोमितेति // विधिब्रह्मा विधुना चन्द्रेणैव काञ्चनस्य सञ्चकेन बिम्बकेन कृत्वा वधूनामतिरमणीयमाननं विधत्ते किम् / यतः किंभूतेन ? विलोमितः पराङ्मुखः कृतः स्वप्रभया जितः अङ्कः कलङ्को येन तादृशादुरकृष्टादतितेजस्विनः किरणाद्धेतो. दुरूहो दुस्तक्यों गादित्राद्यवयवो यस्य, अथ च,-विपरीतीकृतानामङ्कानां नेत्रा. दिनिर्माणार्थ निम्मोन्नतांशचिह्वस्थानानामुरिकरणं संघटनं तस्माद्धेतोः साक्षादलचयनेत्रकर्णनासिकाद्यवयवेन / आननं तु साक्षादृश्या विलोचननासाकर्णाद्यवयवा यस्य तादृशम् / तस्माद् ब्रह्मा स्त्रीमुखं चन्द्ररूपेण स्वर्णस्य सञ्चकेन निर्ममे / सञ्चके हि
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy