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________________ 1322 नैषधमहाकाव्यम् / कः स्मरः कस्त्वमति सन्देहे शोभयोभयोः / त्वय्येवार्थितया सेयं धत्ते चित्तेऽथवा युवाम् / / 43 / / क इति / अथवा पक्षान्तरे, हे देव ! उभयोः तव कामस्य च द्वयोः, शोभया समानसौन्दर्येण हेतुना, अन्न अनयोः सुवयोः मध्ये, स्मरः कामः, कः ? त्वं भवान् वा, कः? इति एवं, सन्देहे संशये सति, सेयं भैमी, त्वय्येव भवत्येव, अर्थितया प्रार्थि तया, त्वामेव लव्धुमिच्छुतया इत्यर्थः। चित्ते मनसि, युवां त्वां कामञ्च द्वावे / 'त्यदानीनां मिथः सहोत्तौ यत् परं तत् शिष्यते' इति वचनात् त्यदायेकशेषः / पत्ते धारयति, त्वन्मन्नथयोः कतरः त्वम् इति सन्देहे कामस्थ परित्यागे तवापि परित्या. गाशङ्कया त्वं परित्यक्तः मा स्याः इति त्वदर्थित्वेन अनया उभौ एव चित्ते धाते, रत्नयोः कृत्रिमाकृत्रिमयोः सन्देहे उभयोरेवधारणवत् , अन्यथा अन्यतरत्यागे मुख्यस्यैवाकृत्रिमस्य त्यागभयादिति त्वदर्थमेव कामं धारयति, न तु कामार्थ त्वामिति भावः // 43 // अथवा-दोनों (तुम्हारी तथा कामदेव ) की शोभाओंके विषयमें (समान होनेसे ) कामदेव कौन है ? और तुम ( नल ) कौन हो ? इस सन्देहके होनेपर यह दमयन्ती तुम्हारे विषयमें ही चाहना होनेसे तुम दोनों ( तुम्हें तथा कामदेव ) को चित्तमें धारण करती है। [ लोक में भी मणि आदि किसी दो वस्तु के समानरूप होनेसे ( कौन असली है ? और कौन नकली ? ऐसा) सन्देह होनेपर कोई व्यक्ति निर्णय होनेतक दोनोंको इस भयसे ग्रहण किये रहता है कि किसी एक के त्याग देने पर कदाचित् मैं मुख्य ( असली ) का ही न त्याग कर दूं, न कि दोनोंको या नकलीको ग्रहण करनेकी इच्छाले; उसी प्रकार सखोको तुम दोनोंकी समान कान्ति होनेसे 'कौन प्रिय नल है ? तथा कौन कामदेव है ?' ऐसा सन्देह हुआ और वह तुम्हें ही ग्रहण करना तथा कामदेवका त्याग करना चाहती थी, अत एव इन दोनों में से किसी एकके छोड़नेपर कहीं मैं प्रिय नलको ही नहीं छोड़ दूं' इस भयसे निर्णय होनेतक तुम दोनोंको ही हृदयमें धारण करती है अर्थात् तुम्हारे लिए हो कामदेवको धारण करती है, कामदेवके लिए तुम्हें धारण नहीं करती] // 43 / / त्वयि न्यस्तस्य चित्तस्य दुराकर्षवदर्शनात् / शङ्कया पङ्कजाक्षी त्वां गंशेन स्पृशत्यसौ / / 44 // अदुक्तं 'पूर्णया' इत्यादि श्लोकेन तत्रोत्तरमाह-स्वयीति / पङ्कजाक्षो कालनयना, अत एव अक्षिद्वथे अस्या महत्येव ममत्वबुद्धिरिति भावः / असौ दमयन्ती, स्वयि भवति, न्यस्तस्य समर्पितस्य, चित्तस्य मनसः, दुराकर्षस्वदर्शनात् दुःखेनापि पुनः प्रत्यानेतुम् अशक्यत्वज्ञानात् , शङ्कया भयेन, त्वां भवन्तम् , हगंशेन दृशः एकमात्रस्य चक्षुषः, अंशेन अवयवेन, किञ्चिन्मात्रभागेनेत्यर्थः / अपाङ्गग्नेति यावत् / 1. 'स्वयैवा-' इति पाठान्तरम् /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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