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________________ विंशः सर्गः। 1323 स्पृशति स्पर्शविषयीकरोति, अवलोकयतीत्यर्थः / यदि पूर्णाभ्यां लोचनाभ्यां पश्येत् तदा पङ्कजवत् सुन्दरं नयनद्वयमपि चित्तवत् अपरावर्तनीयतयात्वयि लग्नं भवेदिति संशयेन आकर्णविश्रान्तस्य विशालस्य नेत्रस्य किञ्चिन्मात्रांशस्य त्वतः प्रत्याहरणासमर्थऽपि 'सर्वनाशे समुत्पन्ने अर्द्ध त्यजति पण्डितः' इति शास्त्रात् न विशेषज्ञतिरिति विविच्य त्वां पूर्णाभ्यां लोचनाभ्यामपश्यन्ती सा गंशसात्रेण पश्यति, अतो नोपाल. म्भावकाशः इति भावः // 44 / / ( अब नलोक्त 'पूर्णया.......' ( 20 / 31 ) आक्षेपका 'कला' उत्तर दे रही है-) कमललोचना ( अत एव नेत्रमें विशेषतः ममत्वे बुद्धिवाली) यह ( दमयन्ती) तुम्हारेमें समर्पित चित्तका पुनः प्रत्यावर्तन करना अशक्य होने के कारण ( 'यदि मैं पूर्ण नेत्रोंसे इन्हें देखूगी अर्थात् इनके लिए नेत्र को पूर्णतया समर्पित कर दूंगी तो सम्भव है कि ये नेत्र भी उसी प्रकार पुनः नहीं लौटेंगे, जिस प्रकार इनमें समर्पित चित्त नही लौट रहा है' इस ) भयसे तुमको नेत्रप्रान्त ( कटाक्ष ) से ही देखती है। [ 'पङ्कजाक्षी' कहनेसे दमयन्तीके नेत्रोंका अतिशय सौन्दवान् होना तथा सौन्दर्यवान् पदार्थको किसीके लिए समर्पण करनेपर पुनः वापस आने में कठिनाई होने के कारण उसे (त्रों को ) तुम्हारे लिये समर्पित नहीं करना अर्थात् पूर्ण नेत्रोंसे नहीं देखना सूचित होता है ] / / 44 // विलोकनात् प्रभृत्यस्या लग्न एवासि चक्षुषोः / स्वेनालोकय शङ्का चेत् प्रत्ययः परवाचि कः ? / / 45 / यदुक्तं 'नालोकते' इत्यादि श्लोकेन तत्रोत्तरमाह-विलोकनादिति / विलोकनात् प्रभृति दूत्यकाले प्रथमदर्शनात आरभ्यैव, 'अपादाने पञ्चमी' इति सूत्रे 'कार्तिक्याः प्रभृति इति भाष्यकारप्रयोगात् प्रभृतियोगे पञ्चमी' इति कैयटः। अस्याः दमयन्त्याः , चक्षुषोः लोचनयोः, लग्नः संसक्तः एव, अलि वर्तले, त्वमिति शेषः / शङ्का चेत् मदुक्तौ अविश्वासः यदि, तदा स्वेन आत्मना, स्वयमेवेत्यर्थः, आलोकय पश्य, त्वमस्याः चक्षुषोः लग्नो न वा इति परीक्षय इत्यर्थः / परवाचि अन्येषामुक्ती, कः प्रत्ययः ? का श्रद्धा ? नैव श्रद्धा कर्त्तव्या इत्यर्थः / पुरस्थस्य वस्तुनः प्रतिबिम्बः अक्षिकनीनिकायां साक्षात् अवलोक्यते, एवञ्च नलश्चेत् तथा द्रष्टुं प्रवत्तेत तदा स्वप्रतिबिम्बं तत्र प्रतिफलितं दृष्ट्वा स्वलग्नत्वं साक्षादेव पश्येत् इत्यत एव छलात् स्वेनालोकय इत्युक्तमिति मन्तव्यम् // 45 // ( दूतकर्म करते हुए ) देखनेसे लेकर ( आजतक ) तुम इस ( दमयन्ती ) के नेत्रोंमें लगे ही हुए हो अर्थात् तबसे लेकर दमयन्ती सदा तुम्हें ही देखती है, यदि ( मेरे कथनमें) शङ्का है तो ( दमयन्तीके नेत्रमें ) स्वयं देख लो ( मैं दमयन्तीके नेत्रमें हूँ या नहीं ?, क्योंकि ) दूसरेके कहने में कौन विश्वास है ? [ प्रत्यक्ष दृश्य वस्तुमें दूसरेके कहने से विश्वास करनेकी आवश्यकता नहीं होती, अत एव तुम स्वयमेव देख लो कि इसके नेत्रमें बसते हो या नहीं। यहाँपर 'कला' ने इस अभिप्रायसे नलके प्रति ऐसा वचन कहा है कि 'यदि 83 नै० उ०
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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