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________________ 1324 नैषधमहाकाव्यम् / ये दमयन्तीके नेत्रोंको देखेंगे तो इनका प्रतिबिम्ब दमयन्तीके नेत्रोंकी कनीनिकाओं ( पुतलियों ) में अवश्य पड़ेगा और उसे देखकर इन्हें विश्वास हो जायेगा कि सचमुच दमयन्ती मुझे अपने नेत्रोंमें रखती है / अथवा-जो तुमने कहा है कि दमयन्ती तुमलोगोंको पूर्ण नेत्रोंसे सर्वदा तथा मुझे एक नेत्रप्रान्तके स्वल्पतम भागके द्राक् (क्षणमात्र ) देखती है। यह तुमने सत्य ही कहा है, क्योंकि तुम्हे दूतकर्म करते हुए दमयन्तीने देखा था, तबसे ही तुम उसके नेत्रमें ही रहते ही तथा नेत्रमें स्थित कज्जलादिका पूर्ण नेत्रोंसे स्वयं देखना जिस प्रकार अशक्य है, उसी प्रकार स्वनेत्रस्थ तुमको पूर्णनेत्रसे देखना दमयन्तीके लिए अशक्य है, तथा स्वनेत्रस्थ वस्तुको कोई स्वयं ही देख सकता है या नहीं, इस विषयमें 'तुम्हें शङ्का है तो अपने नेत्रगत गोलकादिको तुम स्वयं देख लो तो ज्ञात हो जायेगा कि दूसरेके कहने में क्या विश्वास है ? ] // 45 // परीरम्भेऽनयाऽऽरभ्य कुचकुङ्कमसक्रमम् / त्वयि मे हृदयस्यैवं राग इत्युदितैव वाक / / 46 / / अथ यदुक्तं 'रागं दर्शयते' इत्यादिश्लोके तनोत्तरमाह-परीरम्भे इति / हे महाराज ! अनया सख्या, परीरम्भे गाढालिङ्गनसमये, कुचकुङ्कुमस्य निजस्तनद्वयलिप्तस्य काश्मीरजस्य, सङ्क्रम सङक्रान्तिम , मुद्रणमित्यर्थः। आरभ्य उपक्रम्य, स्वकुचकुङ्कुमरागं तव हृदये संसञ्जनात् प्रभृतीत्यर्थः / त्वयि भवति नले विषये, मे मम, हृदयस्य अन्तःकरणस्य, रागः अनुरक्तिः, रक्तिमा च, एवम् इत्थम् , हृदयस. झामितकुचकुङ्कुमवदेवेत्यर्थः / इति इयम् , वाक वचः, उदितैव उक्तैव, उक्तिवदेव व्यक्तं सूचितमित्यर्थः / अतः सखीषु अनुरक्ता न मयीति नोपालभ्येयमिति भावः॥ ( अब नलोक्त 'रागं दर्शयते ... ..., ( 2033) आक्षेपका 'कला' उत्तर देती है-) आलिङ्गनमें ( तुम्हारे हृदयमें मेरे ) स्तनों के कुङ्कुमके लगनेसे लेकर 'तुम्हारे (नल ) में मेरे हृदयका ऐसा अनुराग ( पक्षा०-लालिमा ) है' यह वचन कथित ही है / [इसी अभिप्रायसे दमयन्ती तुम्हारे प्रति सच्चा अनुराग विना वचनोंको कहे ही व्यक्त करनेसे वचन द्वारा उसे व्यक्त नहीं करती, क्योंकि किसी प्रकार कहे गये वचनका पुनः शब्दान्तरसे कहना कोई बुद्धिमत्ता नहीं है। पाठा०-.."तुम्हारेमें ही मेरे हृदयका राग ( अनुराग, पक्षारक्तिमा ) है। अथवा-"तुम्हारेमें मेरे हृदयका अर्थात् हार्दिक ही राग है, शाब्दिक नहीं ( अत एव शाब्दिककी अपेक्षा हार्दिक कार्यका अधिक महत्त्व होनेसे आपको उपालम्म देना उचित नहीं है / द्वितीय पाठा०-"मानो यह बात तो कही गयो-सी है ) अत एव पुनः कथन अनुचित समझकर यह दमयन्ती मुखसे कुछ नहीं बोलती ] // 46 // मनसाऽयं भवन्नामकामसूक्तजपव्रती। अक्षसूत्रं सखीकण्ठश्चुम्बत्येकावलिच्छलात् / / 47 / / 1. 'हृदयस्यैव' इति पाठान्तरम्। 2. 'इत्युदितेव' इति पाठान्तरम् /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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