________________ 678 नैषधमहाकाव्यम् / जङ्घाया ऊर्ध्वभागाक्रमिवेगात् ,वेगेन जङ्घामारोहत इत्यर्थः, सरटात् कृकलासात्, "सरटः कृकलासः स्यात्' इत्यमरः / भयेन पटोज्झिनी वस्त्रत्यागिनी, विवस्त्रा सती. त्यर्थः, लोकैः जनैः, अहासि परिहसिता // 52 // . नलके लिए चामर ( या-मोरपंखी ) से हवा करती हुई किसी स्त्रीके पैरपर दमकी दासीके द्वारा चुपचाप ( आकर ) छोड़े गये तथा जङ्घके ऊपर चढ़ते हुए गिरगिटके भयसे कपड़ेको खोली हुई अर्थात् नग्न हुई उस चामर डुलानेवाली स्त्रीको लोगोंने हँस दिया // 52 // पुरःस्थलागूलमदात् खला वृषीमुपाविशत् तत्र ऋजुवरद्विजः / पुनस्तमुत्थाप्य निजामतेवंदाऽहसच्च पश्चात्कृतपुच्छतत्प्रदा / / 53 / / पुरःस्थेति / खला काचित् धर्ता स्त्री, वृषीम् आसनम् 'यतीनामासनं वृषी' इत्यमरः / तस्य टीकायां 'ब्रवन्तः सीदन्त्यस्यामिति पृषोदरादित्वात् साधु / अतसी वृसी मांसी स्वस नासेति चन्द्रगोमी दन्त्येष्वपि पठति' पुरःस्थलागलं पुरोभागस्थ. पुच्छं यथा तथा, अदात् दत्तवती, वरद्विजायेति शेषः, ददाते डि 'गातिस्थाधुपा-' इत्यादिना सिचो लुक। तत्र तस्यां वृष्याम्, ऋजुः सरलः, अकुटिलबुद्धिरित्यर्थः / तस्याः कौतुकचातुर्यमजाननिति भावः, वरद्विजः वरपक्षीयः कश्चित् ब्राह्मणः, उपाविशत् उपविष्टः, पुनः अनन्तरं, निजामतेः स्वाज्ञानस्य, वदतीति वदा अज्ञा. नात् मया वैपरीत्येनासनं दत्तमितिवादिनीत्यर्थः, पचाद्यच् / 'वदो वदावदो वक्ता' इत्यमरः / सा खलेति शेषः / तं द्विजम्, उत्थाप्य उत्तोल्य, पश्चात्कृतपुच्छां तां वृषीं प्रददातीति पश्चाद्देशस्थापितलाङ्गलासनप्रदा सती, प्रदेति प्रपूर्वाददातेः कर्मोपप. दात् 'प्रेदा ज्ञः' इति कप्रत्ययः / अहसत् जहास च, पुच्छस्य सन्मुखस्थत्वे द्विजस्य प्रकाशितमेहनत्वप्रतीतेः, पृष्ठत उपस्थाने पशुत्वप्रतीतेश्चेति भावः // 53 // . धूर्ता (हँसी करने में चतुर ) किसी स्त्रीने अग्रिम भागमें पूंछवाले यतिके आसनको (वरपक्षीय ब्राह्मणको बैठने के लिए) दिया, उस अग्रिम भागमें पुच्छयुक्त कूर्माकृति यत्यासन पर सरल (हँसीकी बातको नहीं समझनेवाला सीधी बुद्धिवाला ) एवं श्रेष्ठ (या-वरपक्षीय ) ब्राह्मण बैठ गया, फिर 'अज्ञानसे मैंने इस प्रकार उल्टा ( आगेकी ओर पूँछवाले ) यत्यासनको बिछा दिया' ऐसा कहकर उसे ( वरपक्षीय ब्राह्मगको ) उठा कर उस आसनकी ऍछको पीछे की ओर करके बिछा दिया ( और उसपर उस सरल बुद्धि वरपक्षीय ब्राह्मणके वैठनेपर ) हँसने लगी। [अग्रिम भागमें पूँछयुक्त कूर्माकृति उस आसनपर उस ब्राह्मण के बैठनेसे वह पूँछ उस ब्राह्मणके शिश्न (लिङ्ग) के समान मालूम पड़ता था, यह सीधी बुद्धिवाला ब्राह्मण मेरी हँसीको नहीं समझनेसे इस पर चुपचाप बैठ गया, अत एव यह पशुतुल्य है और पशुके पिछले भागमें पूंछ होती है, पशुतुल्य इस ब्राह्मणके लिए मुझे यह आसन इस प्रकार बिछाना चाहिये था कि इसकी पूँछ पीछे की ओर रहे, ऐसा सोच कर ; अपनी भूल बताती हुई उस धूर्त स्त्रीने ब्राह्मणको उठाकर उस आसनको घुमाकर इस प्रकार