________________ षोडशः सर्गः। 677 एवं वादिनः। ईरतेणिनिः / जन्यस्य कस्यचित् वरसखस्य, गले कण्ठे, तथा उक्त प्रकारेण, उक्ता कथिता, एकैव एकिका तयोः अन्यतरा स्त्री, 'प्रत्ययस्थात् कात पूर्वस्य' इति इकारः। हे जन्य ! अदः इदं, युवाम् इमे मे स्त्रितमे इति वचः इति यावत् / वदन् कथयन् , त्वमिति शेषः। तुच्छगलः रिक्तकण्ठः, हारशून्यकण्ठः सन् इत्यर्थः / न भासि न शोभसे, इति, उक्त्वेति शेषः / गम्यमानार्थवादप्रयोगः / निजम् आत्मीयं, गुच्छं द्वात्रिंशद्यष्टिकहारम् / 'हारभेदा यष्टिभेदात् गुच्छगुच्छार्द्धगोस्तनाः' इत्यमरः। न्यधत्त निदधे / ततः गुच्छनिधानानन्तरं, परा अपरा स्त्री तु, अदः मे मे इति अयुक्तं शब्दमित्यर्थः / वदन् छगलः छागः, न भासि ? न प्रतीयसे ? अपि तु आस्मानं छग. लमेव स्वीकरोषि, इति आकृषत् आचकर्ष ! कृषेस्तौदादिकाल्लङ् / 'स्तभच्छागवस्तच्छगलका अजे' इत्यमरः / अत्रापि पूर्ववत् श्लेषः // 51 // ____ 'ये तुम दोनों मेरी श्रेष्ठ स्त्रियां हो अर्थात् तुम दोनों मेरी प्रियतमा हो ( अथवामेरे मतसे श्रेष्ठ स्त्रीरत्न हो )' इस प्रकार कहते ( स्तुति या परिहास ) करते हुए किसी बराटीके गले में उक्त प्रकारसे कही गयी ( अथवा-जैसा तुम कहते हो वैसा ठीक है ऐसा कहती हुई ) उन दोनों में से एक स्त्रीने 'ऐसा कहते हुए शुन्य गलेवाले बकरीरूप तुम नहीं शोभते हो ?' अर्थात् 'मे मे' कहते हुए तुम बकरी-जैसा ही शोभते हो ( अथवा-स्तनशून्य गलेवाले, तुम नहीं शोभते हो; क्योंकि बकरीके गले में स्तन रहता है और तुम्हारे गलेमें वह स्तन नहीं है, अथवा-बांधनेकी रस्सीसे शून्य गलेवाले तुम नहीं शोभते हो, क्योंकि बकरेके गलेमें रस्सी रहती है और तुम्हारे गलेमें वह रस्सी नहीं हैं; अथवा-इस प्रकार मेरी प्रशंसा करते हुए हारझून्य गलेवाले तुम नहीं शोभते हो। इस प्रकार कहकर ) अपने हार ( बत्तीस लड़ीवाले मोतियोंकी माला ) को ( बकरेके स्तनरूपमें, अथवा-बांधनेकी रस्सीरूपमें, अथवा-उपहाररूपमें ) डाल दिया और उससे भिन्न दूसरी स्त्री 'यह ( 'मे मे' ) कहते हुए बकरारूप तुम नहीं शोभते हो अर्थात् बकरे-जैसा ही शोभते हो ऐसा कहकर उसे बकरा मानकर (या-स्तुतिपक्षमें रमणार्थ) खींचने लगी। ( अथवा-- शून्य कण्ठवाले अर्थात् बकरेका मुख खाद्यपल्लवसे शून्य नहीं शोमता है, अत एव अपने हाथमें क्रीडार्थ लिए हुए पल्लव-गुच्छको उसके कण्ठ (मुख) में डाल दिया और दूसरी स्त्री उसे बकरा मानकर खींचने लगी, अथवा-ऐसी स्तुति करते हुए तुम वरण करनेके योग्य हो इस प्रकार कहकर उसके गले में अपना हार स्वयंवरमालाकी जगह डाल दिया और दूसरी स्त्री उस पुरुषको रमणार्थ खींचने लगी)॥५१॥ नलाय बालव्यजनं विधुन्वती दमस्य दास्या निभृतं पदेऽर्पितात् / . अहासि लोकैः सरटात् पटोज्झिनी भयेन जचायतिलचिरंहसः / / 52 / / नलायेति / नलाय बालव्यजनं चामरं, विधुन्वती कम्पयन्ती, चामरेण नलं वीजयन्ती इत्यर्थः, काचिद् स्त्रीति शेषः, दमस्य दमयन्तीभ्रातुः, दास्या परिचारिकया, निभृतं निगूढं यथा तथा, पदे अर्पितात् विसृष्टात् , अत एव जङ्घायतिलचिरंहसः