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________________ 676 नैषधमहाकाव्यम् / इस भोजनपात्रमें ( अथवा-परोसनेवाली इन स्त्रियों में-से ) कोई स्त्री रुचि ( तुम्हारी चाहना ) के अनुसार यथायोग्य तेमन अर्थात् कढ़ी ( या दहीबड़े ) को लावे, या तुम्हारी रुचिके अनुसार कढ़ी या दही-बड़े को लावे क्या ? प्यासे हुए तुम्हारे लिए जल है ( या जल दे क्या ? ) और भात भी दे ( या भात भी दे क्या ? ) / ' परिहासपन में-'परोसनेवाली इन स्त्रियोंमेंसे कोई स्त्री स्तन-जघनादि शरीरशोभाको देखने की अभिलाषाके अनुसार तुम्हारे मनका अपहरण करे अर्थात् शरीरशोभासे तुम्हारे मनको आकृष्ट करे, अधर-चुम्बनके लिए पिपासु ( प्यासे हुए) तुम्हारे लिए सब तरहसे नेत्रादिके चुम्बनस्थानों के मुखमें रहने से देखनेमात्रसे कामहर्षप्रद मुखको अर्पित करे अथवा-मुखके पिपासुक (अधर चुम्हनाभिलाषी) तुम्हारे लिए कामहर्पकारक वराङ्ग ( गुह्यप्रदेश ) अर्पित करे // 49 // मुखेन तेऽत्रोपविशत्वसाविति प्रयाच्य सृष्टानुमति खलाऽहसत् / वराङ्गभागः स्वमुखं मतोऽमुना स हि स्फुटं येन किलोपविश्यते // 50 // मुखेनेति / हे जन्य ! अत्र अस्या पङ्क्तो, असौ अयं जनः, ते तव, मुखेन सामु. ख्येन वक्त्रेण च अधिकरणे साधनत्वनिर्देशः / सम्मुखे इत्यर्थः / उपविशतु आस्तां. प्रार्थनायां लोट् / भोजनार्थमिति शेषः। इति प्रयाच्य प्रार्थ्य, सृष्टानुमतिं श्लिष्टार्थमबुद्ध्वा 'मुखेनोपविशतु' इति सृष्टा प्रदत्ता,अनुमतिः सम्मतियन तं तादृशंकृताङ्गी. कारं, कञ्चित् जन्यमिति शेषः। खला काचित् धूर्त्ता स्त्री, अहसत् परिजहास। 'वराङ्गो मूर्द्धगुह्ययोः' इत्यमरः / अमुना जनेन, स्फुटं स्पष्टं यथा तथा, स्वमुखं मतः हि स्ववक्त्रसदृशत्वेन अनुमतः इत्यर्थः। मुखोपवेशनाङ्गीकारो नान्तरीयकः सिद्धः इति भावः / अत्रापि पूर्ववत् श्लेषः // 50 // ___(हे बराती महाशय !) यहाँपर (इस पंक्तिमें ) यह सखो ( या पुरुष ) आपके सामने मुख करके, ( या मुखके सहारे, भोजन करने के लिए ) बैठ जाय ?' ( ऐसा किसी धूर्त सखी या पुरुष या 'दम' के पूछनेपर उसके श्लेषयुक्त दूसरे अर्थको नहीं समझनेवाले बरातीके 'हां बैठ जाय' ऐसा) स्वीकार करनेपर उस ( बराती ) को उस धूर्त (इलेपार्थज्ञान में 'चतुर ) स्त्रीने हँस दिया ( हँसनेका कारण यह था कि-) जिस वराङ्ग अर्थात् मदनमन्दिर ( गुह्याङ्ग ) से उपवेशन किया ( प्रवेश कराया) जाता है, उस वराङ्गको इस बरातीने श्लेषार्थ नही समझनेसे अपना मुख मानकर 'हाँ' कह दिया है। ( अतः उस अवसरपर उसका परिहास करना उचित रहा ) // 50 // युवामिमे मे स्त्रितमे इतीरिणो गले तथोक्ता निजगुच्छमेकिका / न भास्यदस्तुच्छगलो वदन्निति न्यधत्त जन्यस्य ततः पराऽऽकृषत्। 51|| युवामिति / इमे युवां भवत्यो, मे मम, स्त्रितमे अतिशयेन स्त्रियो, अन्यापेक्षया प्रियतमे इत्यर्थः। 'नद्याः शेषस्थान्यतरस्याम्' इति विकल्पात् ह्रस्वः। इति ईरिणः
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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