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________________ षोडशः सर्गः। 674 बिछा दिया कि उसकी पूछ ब्राह्मणके बैठनेपर पीछे की ओर हो और फिर वह ब्राह्मण उसपर बैठ गया तो उसको ( देखकर ) उस स्त्रीन हंस दिया ] // 53 // स्वयं कथाभिर्वरपक्षसुभ्रवः स्थिरीकृतायाः पदयुग्ममन्तरा / परेण पश्चान्निभृतं न्यधापयद्ददर्श चादर्शतलं हसन खलः / / 54 / / स्वयमिति / खलः कश्चित् धूर्तः, स्वयम् आत्मना, कथाभिः इष्टालापः, स्थिरीकृतायाः तकथाश्रवणासक्तत्वेन निश्चलीकृतायाः, वरपक्षसुभ्रवःवरयात्रसम्बन्धिन्याः कस्याश्चित् स्त्रियाः, पदयुग्मम् अन्तरा पादयुगलस्य अन्तराले, 'अन्तराऽन्तरेण युक्ते' इति द्वितीया। परेण पुरुषान्तरेण प्रयोज्येन, पश्चात् पृष्ठतः, निभतं निगूढं यथा तथा आदर्शतलं दर्पणम्, उत्तानीभूतदर्पणमित्यर्थः, न्यधापयत् निधापयामास, हसन् ददर्श च / वराङ्गप्रतिबिम्बदर्शनात् हासः इति भावः // 54 // (परिहास चतुर किसी ) धूर्तने स्वयं (मनोनुकूल हास्यादि . सन्बन्धिनी) कथाओंसे ( उनके सुनने में अत्यन्त आसक्त होने से निश्चयकी गयी) वरपक्षीय (अथवा-नलके बगलमें बैठी हुई ) सुन्दरीके दोनों पैरों के बीच में दूसरे ( पुरुष ) से पीछेकी ओरसे चुपचाप दर्पणको रखवा दिया और हँसता हुआ ( उस स्त्रीके ऊरु, जघन, भगादिके प्रतिबिम्बयुक्त दर्पणको ) देखने लगा / / 54 / / अथोपचारोद्धरचारुलोचनाविलासनिर्वासितधैर्यसम्पदः / स्मरस्य शिल्पं वरवर्गविक्रिया विलोककं लोकमहासयन् मुहुः / 5 / / अथेति / अथ अनन्तरम्, उपचारेषु सेवाकार्येषु, उद्धरा उदूढभारा, तत्परा इत्यर्थः 'ऋकपूर-' इत्यादिना समासान्तः। तथाविधानां चारुलोचनानां मनोज्ञनयनानां, स्त्रीणामिति शेषः, विलासैः कटाक्षपातादिभिः साधनैः, निर्वासिता निष्कासिता, धैर्यसम्पत् येन तादृशस्य, स्मरस्य कन्दर्पस्य, शिल्पं सृष्टिः, स्मरकृता इत्यर्थः, तादृशविलासैनिर्वासिता धैर्यसम्पत् आत्मदमनसामयं याभिस्तादृश्यः इति बरवर्गविक्रियाया विशेषणं वा वरवर्गस्य जन्यजनसमूहस्य, विक्रियाः वक्ष्यमाणस्मर. विकाराः कर्व्यः, विलोककं तद्विकारद्रष्टजनं, मुहुः अहासयन् परिचारिकाविलास. दर्शनादेव जन्यजनस्य जनहासकरः स्मरविकारो जातः इत्यर्थः॥ 55 // ___ इस ( काम-रहित केवल परिहास कर्म ) के बाद परोसने आदमें तत्पर सुलोचनाओं के ( कटाक्षादि ) विलाससे धैर्यहीन कामदेवकी सृष्टिरूप वरपक्षीयों ( बरातियों ) के काम'विकारने दर्शक लोगोंको बार-बार हँसा दिया अर्थात् परोसने आदिमें तत्पर सुलोचनाओंके कटाक्षादिको देखकर धैर्यरहित अर्थात् शीघ्रतम किये गये बरातियोंके मनोविकारको देखकर (इन दासियोंके कटाक्षादि विलासको देखनसे ही इन बरातियोंको कामजन्य मनोविकार हो गया, यह समझकर ) दर्शक लोग हंसने लगे। ( अथवा-वरपक्षियोंके मनोविकारको उत्पन्न करनेवाली तथा कटाक्षादिविलाससे (विलासियोंके ) धैर्यको छुड़ानेवाली और
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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