SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 515
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 1212 नैषधमहाकाव्यम् / खण्डविकारे' इत्यमरः। मरिचस्य अवचूर्णना चूर्णैः अवध्वंसना, तच्चूर्णमिश्रण: मित्यर्थः / 'सत्याप-' इत्यादिना ण्यन्तात् 'ण्यासश्रन्थो युच' इति युच / स्फुट व्यक्तम् , अत एव स्पृहावहा रुचिकरी / या इयं सम्मदेषु नखापणा मा फाणितषु मरिचार्पणावत् इष्टा इव अभूदित्यर्थः / अत्र वाक्यार्थयोः सादृश्ययोगेन सादृश्याक्षेपात् असम्भवद्वस्तुसम्बन्धलक्षणो वाक्यार्थवृत्तिनिदर्शनाभेदोऽलङ्कारः // 113 // / भाव ( बीज-स्खलन) को प्राप्त करते हुए उन दोनों ( दमयन्ती तथा नल ) का नख. क्षत करना ( नखविलेखन ) आनन्दोमें हुआ अर्थात् आनन्दप्रद हुआ, क्योंकि दूध या शक्कर के बनाये हुए पानक-विशेषमें कड़वा भी मिर्चका चूर्ण डालना रुचिकारक होता है। ( अथवा-अनेक विध सुरतमें स्खलितबीज होते हुए उन दोनोंका नखक्षत करना दूध या शकरके बने हुए पानक विशेषमें कटु मी मरिच चूर्ण डालने के समान रुचिकारक हुआ / अथवा-स्खलितबीज होते हुए उन दोनों के अनेकविध सुरतमें रुचिकर नखक्षत करना दूध या शक्करके वने पानक-विशेषमें कटुरस मरिचके चूर्ण डालना ही ( या-चूर्ण डालनेके समान ) हुआ)॥११३॥ अमीलितविलोलतारके सा दृशौ निधवनक्लमालसा। यन्मुहूर्तमवहन्न तत् पुनस्तृप्तिरास्त दयितस्य पश्यतः // 114 / / अर्द्धति / निधुवनक्लमालसा सुरतश्रमेणावसन्ना, सा भैमी, मुहूर्त किञ्चित्काल. मपि, यत् अर्द्धमीलिते ईषत्सङ्कुचिते, च ते विलोलतारके चञ्चलकनीनिके चेति ते तादृश्यौ / 'तारकाऽदगः कनीनिका' इत्यमरः। दृशौ नेत्रे, अवहत् अधारयत् , अकारयदित्यर्थः / तत् तादृशीमवस्थामित्यर्थः / पश्यतः विलोकयतः, दयितस्य प्रियस्य नलस्य पुनः, तृप्तिः आकाक्षापूर्तिः, न आस्त नासीत् / अतिरमणीयत्वात् पुनः पुनरेव तामवस्थां ददर्श स मुग्धो नलः इति भावः // 114 // __सुरतश्रमसे आलसयुक्त उस ( दमयन्ती ) ने जो कुछ समय तक अर्द्धनिमीलित (आधे बन्द ) एवं चञ्चल पुतलियोंवाले नेत्रोंको धारण किया, उसे बार-बार देखते हुए प्रियतम ( नल ) को तृप्ति नहीं हुई अर्थात् आलससे अर्द्धनिमीलितनयना दमयन्तीको नल बार बार बहुत विलम्ब तक देखते ही रह गये // 114 // .. तत्क्लमस्तमदिदीक्षत क्षणं तालवृन्तचलनाय नायकम् / तद्विधाधिभवधूननक्रिया वेधसोऽपि विदधाति चापलम् / / 115 / / तदिति / तस्याः दमयन्त्याः, क्लमः श्रान्तिः, तं नायकं स्वामिनं नलम् , क्षणं क्षणकालम् , तालवृन्तचलनाय व्यजनवीजताय / 'व्यजनं तालवृन्तकम्' इत्यमरः / अदिदीक्षत दीक्षति स्म, प्रावर्त्तयदित्यर्थः / तथा हि तद्विधः तादृशः, यः आधिः श्रमकातयं, तद्भवे तदुद्भूते सन्तापे, धूननक्रिया व्यजनसञ्चालनम् , व्यजनक्रियया 1. 'तद्विधा हि भवदैवतं प्रिया' इति 'प्रकाश' सम्मतं पाठान्तरम् /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy