________________ 1534 नैषधमहाकाव्यम् / लाषादेव स्वाधीनं करोति / तर्हि किमर्थ मुञ्चतीत्यत आह-अङ्कसुप्तं मध्यवर्तिनम् , अथ च-उत्सङ्गे विश्वासारसुखेन निद्रितम् , अमुं मृगं स्वस्यापि दानादाहुदन्तकृत. खण्डनादपि नोज्झन्न त्यजन् , अथ च-स्वशरीरस्यापि वितरणादस्यजन् , अयं चन्द्रस्तेन राहुणा तेन पुण्येन च हेतुना मुदा शरणागतरक्षणनिमित्तहर्षेण कृत्वा मुच्यते स्यज्यते / अन्योऽपि .शरणागतं मृगं जिघांसोः सिंहाद्रक्षितुमात्मानमपि ददानो हि तेन पुण्येन सिंहान्मुच्यत एव / 'नौज्झत्' इति पाठे-स्वस्यापि दानाङ्कसुप्तममुं यतो नामुश्चत्तेन हेतुनाऽयं विमुच्यते, अर्थादाहुणेत्यर्थः // 66 // ___ राहु मृगके लोमसे चन्द्रमाको ग्रासमें लेता ( खाता ) है, किन्तु ( शरणागत होनेसे निर्भय होकर ) अङ्कमें सोये हुए इस ( मृग ) को अपने शरीरके राहुद्वारा ( चर्वित ) होने ( पक्षा०-देने ) से भी नहीं जोड़ते चन्द्रमाको वह राहु हर्षके साथ उस (शरणागतरक्षणरूप ) पुण्यसे छोड़ देता है। [ लोकमें भी शरणागतकी रक्षा करनेवाला व्यक्ति उस पुण्यसे छूट जाता है, अथच-वह व्यक्ति भी उसके इस सत्कार्यसे प्रसन्न होकर उसे छोड़ देता है ] // 66 // सुधाभुजो यत्परिपीय तुच्छमेतं वितन्वन्ति तदहमेव / पुरा निपीयास्य पिताऽपि सिन्धुरकारि तुच्छः कलशोद्भवेन / / 67 / / सुधेति / सुधाभुजो देवा एनं चन्द्रं परिपीय साकख्येन पीत्वा तुच्छं रिक्तं यद्वितन्वन्ति कुर्वन्ति तदहमुचितमेव, यतोऽस्य पिता सिन्धुरपि कलशोद्भवेना. गस्त्येन पुरा निपीय तुच्छो रिक्तः अकारि, तस्मास्कुलक्रमागतं तुच्छत्वमित्यर्थः। एतस्य पूर्वेऽपि परोपकारनिरताः, तस्मादयमपि तथैवेति भावः / कलशादुत्पन्नेनापि सागरस्य पानमित्याश्चर्यम् // 67 // ___ अमृतभोजन करनेवाले देवलोग जो इस चन्द्रका अच्छी तरह पानकर इसे खालीकर छोड़ देते हैं, यह उचित ही है क्योंकि पहले कलशसे उत्पन्न ( अगस्त्य मुनि) ने भी इसके पिता ( समुद्र ) को भी अच्छी तरह पीकर खाली छोड़ दिया था। [ यह चन्द्र अपने पिताके समान ही परोपकार परायण है, अथच-कलशसे उत्पन्न अगस्त्यजीका समुद्रको अच्छी तरह पी जाना महान् आश्चर्य है ] // 67 // पौराणिक कथा-असुरलोग देवोंको युद्ध में मार-पीट कर समुद्रमें छिप जाते थे और वहां जलके भीतर स्वयं नहीं जा सकने के कारण देव उनका कुछ प्रतिकार नहीं कर पाते थे। इस प्रकार अनेक बार होनेपर अतिशय पीड़ित देव अगस्त्य मुनिके पास आकर अपनी करुणगाथा सुनाये, यह सुनकर अगस्त्यजीने समुद्रजलको गण्डूपमें लेकर पी लिया और देवोंने असुरोंको निर्जल समुद्र में युद्धसे पराजित किया और बादमें अगस्त्यजीने भी समुद्रको पुनः जलसे पूर्ण कर दिया।