________________ द्वाविंशः सर्गः। 1533 ___ हलाहल विषके पीनेसे कृष्णवर्ण कण्ठवाले तथा चिता-भस्मसे श्वेतवर्ण शिवजी अपने मस्तक ( सर्वोच्च स्थान ) पर चन्द्रमाको धारण करनेसे, चिह्न ( कलङ्क-चिह)-भूत हरिण युक्त मध्यभागवाले ( अथच-चिह्नभूत कस्तूरीवाले ) तथा अमृतसे निर्मलताको प्राप्त चन्द्रमा की षोडशी कलाके भी योग्य नहीं है। [चन्द्रमा कस्तूरीका लेप शरीरमध्यमें धारण करता है और शिवजी हलाहल विषसे कृष्णवर्ण कण्ठ-धारण करते हैं तथा चन्द्रमा अमृतसे निर्मल है और शिवजी चिताभस्मसे निर्मल ( श्वेतवर्ण ) हैं; अत एव चन्द्रमाकी षोडशांश कलाको मस्तकपर धारण ( पक्षा०-अपने सर्वोच्च स्थानपर विराजमानकर पूजा ) करते हुए भी वे चन्द्रकी षोडशांशकलाके भी योग्य नहीं हैं, क्योंकि उक्त कारणद्वयसे शुभ चन्द्रमाकी अपेक्षा शिवजो अधिक अशुभ हैं और जब वे चन्द्रमाके षोडशांश कल्प ( रूपये में एक आना ) भी योग्य नहीं हैं, तब पूर्ण चन्द्र के योग्य ( समान ) होना तो सर्वथा असम्भव ही है / शुभ चन्द्र तथा अशुभ शिवजी में बहुत बड़ा अन्तर है ] // 64 // पुष्पायुधस्यास्थिभिरर्धदग्धैः मितासितश्रीरघटि द्विजेन्द्रः / स्मरारिणा मूर्धनि यद्धृतोऽपि तनोति तत्तौष्टिकपौष्टिकानि / / 65 // __ पुष्पेति / ब्रह्मणा द्विजेन्द्रश्चन्द्रः पुष्पायुधस्य कामस्यार्धदग्धैरस्थिभिः कृत्वा. ऽघटि निर्मितः। अत एव सितासितश्रोरुपान्तधवलमध्यामलकान्तिः / स्मरास्थि. भिरेव निर्मित इत्यत्र हेतुमाह-स्मरारिणा मूर्धनि धृतोऽपि, अथ च-कृतसंमानोऽपि, तस्य स्मरस्यैव तौष्टिकानि हर्षकारीणि, पौष्टिकानि अभिवृद्धिकारीणि च यद्य. स्मात्तनोति / कामारिणा पूज्यमानोऽपि कामहितमेव यस्मात्करोति, तस्मात्तदस्थिभिरेव घटित इत्यर्थः / एताहक्कामोद्दोपकं किमपि नास्तीति भावः। अस्थिभिरिवेति प्रतीयमानोत्प्रेक्षा / अन्याश्रितोऽपि तदीयशत्रुहितं यः करोति स तदस्थिभिर्घटित इति लौकिक्युक्तिः / तौष्टिकपौष्टिकानि, 'प्रयोजनम्' इति ठक् // 65 // (ब्रह्माने मानो शिवजीके तृतीय नेत्रकी अग्नि ) अधजलो कामदेवकी हड्डियोंसे (बिना जली हड्डियोंसे प्रान्तमागमें ) श्वेत तथा ( जली हड्डियोंसे मध्यभागमें ) कृष्ण इस चन्द्रमाको रचा है, क्योंकि कामशत्रु (शिवजी ) से मस्तकपर रखा गया ( पक्षा०-सम्मानको पाया हुआ ) भी यह चन्द्र उस ( कामदेव ) के हो तुष्टिकारक तथा पुष्टि ( वृद्धि ) कारक कार्योंको करता है / [ लोकमें मी जो कोई दूसरेके आश्रयमें रहता हुआ भी उसके शत्रुको हितकामना करता है, वह व्यक्ति उस शत्रुकी हड्डियोंसे रचा गया है ऐसा कहा जाता है। चन्द्रमा सर्वाधिक कामोद्दीपक है ] // 65 // मृगस्य लोभात्खलु सिंहिकायाः सूनुमंगावं कवलीकरोति / स्वस्यापि दानादमुमङ्कसुप्तं नोज्झन्मुदा तेन च मुच्यतेऽयम् // 66 // मृगस्येति / सिंहिकायाः सुतो राहुमंगाकं चन्द्रं यस्कवलीकरोति तदङ्कमृगस्य लोभात् खलु ग्रासाभिलाषादिव / सिंहिकासुतः सिंहो मृगैरङ्कितं स्थलं मृगग्रासाभिः