SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 415
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 1112 नैषधमहाकाव्यम् / करिष्येऽवश्यमित्युक्त्वा करिष्यभपि दुष्यसि / दृष्टादृष्टा हि नायत्ताः का या हेतवस्तव / / 146 / / करिष्य इति / हे कले! अवश्यं निश्चितम् , करिष्ये विधास्यामि, इत्युक्त्वा एवं कथयित्वा, सर्वथा पापं करिष्यामि इति प्रतिज्ञाय इत्यर्थः। करिष्यन् अपि चिकीर्षुरपि, दुष्यसि दुष्टोऽसि, किमुत कृत्वा इति भावः। हि तथा हि, कार्यस्य इमे कार्यायाः कार्योत्पादनयोग्याः। 'वृद्धाच्छा' दृष्टादृष्टा लक्षितालक्षिताः, हेतवः कारणानि, दण्डचीवरादयो दृष्टहेतवः, कालकर्मेश्वरेच्छादयोऽदृष्टा हेतवः इत्यर्थः / वशाच्च स्वयमेव सम्पाद्यते, न तु त्वया सम्पादयितुं शक्या, तथा च करिष्येऽवश्यमित्युक्त्वा पापकार्येऽकृतेऽपि मनसि तच्चिन्तया मुखे तदुच्चारणेन च भवद्विधानां पातकं जातमिति भावः / / 146 // ___(मैं नल का अपकार) करूंगा' ऐसा कहकर उसे करनेकी इच्छा करते हुए भी तुम दोषी होवोगे। ( अथवा-......."उसे नहीं करनेको इच्छा करते..........क्योंकिप्रथम पक्षमें-नलापकार करनेको कहकर यदि उसे करने की इच्छा करोगे तो पुण्यात्मा नलके अपकारकी भावना मनमें तथा कार्यरूपमें करनेसे भी तुम्हें दोष होगा, और दूसरे पक्षमें-नलापकार करमेको कहकर नहीं करनेकी इच्छा करोगे तो भी प्रतिज्ञामङ्ग करने के कारण तथा महात्मा नलका अपकार करनेको कहने के कारण वाचिक दोष होगा, और नलाप. कार यदि करोगे तो दोष होगा .इस विषयमें सन्देह ही क्या रह जाता हैं ?) / क्योंकि (घटादि ) कार्य-सम्बन्धी दृष्ट (मिट्टी, चक्र, दण्ड, चीवर, चक्र, जल आदि) और अदृष्ट ( देश, काल, ईश्वरेच्छा आदि ) कारण तुम्हारे अधीन नहीं हैं / [ कार्य-साधक दृष्ट सामग्री. को ही तुम जुटा सकते हो, अदृष्ट सामग्रीको नहों, अत एव यदि नल-दमयन्तीके भाग्यमें दुःख नहीं लिखा होगा तो उन्हें पीडित करनेकी इच्छा करके भो तुम उत्त प्रकार दोषभागी बनोगे ही, जिस प्रकार ब्रह्महत्यादि पाप करनेकी इच्छा करके उसे नहीं करनेवाला भी मनुष्य पापभागी होता है। इसके विपरीत यदि नल-दमयन्तीके भाग्यमें दुःख होना लिखा ही होगा तो वह तुम्हारे उद्योग नहीं करनेपर भी होगा हो, किन्तु उसमें निमित्त बन से तुम्हें दोषभागी होना पड़ेगा। इस कारण नल-दमयन्तीके अपकार करनेकी भावना तुम्हें नहीं करनी चाहिये ] // 146 // द्रोहं मोहेन यस्तस्मिन्नाचरेदचिरेण सः / तत्पापसम्भवं तापमाप्नुयादनयात् ततः // 147 // द्रोहमिति / किञ्च, .यः यो जनः, मोहेन अज्ञतावशेन, मौख्यतया इत्यर्थः / तस्मिन् नले विषये, द्राहम् अपकारम् , आचरेत् विदधीत, सः जनः, अचिरेण शोब. 1.:. "त्युक्ति' इति पाठान्तरम् /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy