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________________ समदशः सर्गः। 1111 वा, धर्मो न्यायः, न्यायविचार इत्यर्थः। पुण्यं वा स्वभावो वा यस्य तम् एकप्रकाशधर्माणम् , एतत दमयस्यामपि योज्यम् / 'धर्मादनिच केवलात्' इत्यनिन् / 'धर्माः पुण्ययमन्यायस्वभावाचारसोमपाः' इत्यमरः। तं नलम्, तां दमयन्ती वा, नासत्ययुगं न असत्यं नासत्यं किन्तु सत्यमेव, युगं सत्ययुगमित्यर्थः / तथा त्रेता त्रेतायुगाप, स्पद्धितुमर्हति तुलयितुं योग्यं भवति, न तु जेतुमिति भावः। युवा कलि द्वापरौ युगे, न, तं तां वा स्पखितुं नाहथ इति विभक्तिविपरिणामेनान्वयः / अथवा-असत्यस्य युगं कृतयुगापेक्षया अधर्मयुगम्, त्रेता युगविशेषः अग्नित्रयञ्च / 'नेताग्नित्रितये युगे' इत्यमरः। स्पद्धितुं नाहति, नासत्ययोर्युगमश्विनोयञ्च, तं नलम्, स्पद्धितुम अर्हति सौन्दयणेति च गम्यते / सुतरां युवां कलि द्वापरौ न स्पर्द्धि तुमर्हथ इत्यर्थः // 145 // हे कलि तथा द्वापर युग ! एक प्रसिद्ध (या-उज्ज्वल ) धर्म ( पुण्य, या-स्वभाव ) वाले उस (नल) को तथा एक प्रसिद्ध धर्मवाली उस (दमयन्ती) को सत्ययुग समानता कर सकता हैं, (चतुर्थाश धर्महीन) त्रेतायुग स्पर्धा तो कर सकता है किन्तु जीत नहीं सकता और तुम दोनों (द्वापर तथा कलियुग) तो (अतिशय हीन होनेसे ) स्पर्धा भी नहीं कर सकते हो। ( अथवा-उक्त गुणवाले उस नल तथा दमयन्तीके साथ सत्ययुग तथा त्रेतायुग तो स्प कर सकते हैं, किन्तु तुम दोनों स्पर्दा भी नहीं कर सकते। ( अथवा-(सत्ययुगको अपेक्षा अधर्मयुक्त होनेसे ) असत्य युग त्रेता उन दोनोंके साथ स्पर्धा कर सकता है ........ [ अथवा-नासत्य = अश्विनीकुमार का युगबोड़ी अर्थात अश्विनीकुमारद्वय तथा त्रेता ( गार्हपत्य, आहवनीय और दक्षिण नामसे प्रसिद्ध अग्नित्रय ) मुख्य प्रसिद्ध (या-उज्ज्वल) धर्म ( शरीर सौन्दर्य, या तेज ) वाले उस नल तथा वैसी ही दमयन्तीके साथ स्पर्द्धा कर सकते हैं अर्थात् सम्मिलित दोनों .अश्विनीकुमार और सम्मिलित तीनों अग्नि क्रमशः शरीर-सौन्दर्य तथा तेजसे युक्त गुणवाले नल-दलयन्तीके साथ स्पर्धा कर सकते हैं (फिर भी जीत नहीं सकते ) और उनमेंसे कोई अकेला तो स्पर्द्धा भी नहीं कर सकता, जीतना तो दूर रहे और तुम दोनों पापाधिक्ययुक्त होनेसे स्पर्धा भी नहीं कर सकते हो। अथवापूर्णतः प्रकृष्ट शोभमान धर्मवाले नल तथा वैसी दमयन्तीके साथ सत्ययुग ( अन्तिम समय सत्ययुगमें भी असत्यका कुछ अंश आजानेसे और (चतुर्थाश असत्ययुक्त होनेसे ) त्रेतायुग भी स्पर्धा नहीं कर सकते तो फिर तुम दोनों (कलि तथा द्वापर युग) तो अत्यधिक असत्यांशयुक्त होनेसे उक्त गुणवाले उन नल-दमयन्तीके साथ कदापि स्पर्धा करने के योग्य भी नहीं हो। अथवा-पुरुष कलि तथा दापरका नलके साथ और स्त्री त्रेताका दमयन्तीके साथ स्पर्धा करनेका सम्बन्ध करना चाहिये। अथवा-विरुद्ध तथा अनिश्चित धर्मके होने पर वहां कलह तथा सन्देह हो सकते हैं, किन्तु नल तथा दययन्ती तो शास्त्रानुकूल एवं निश्चित प्रकृष्ट धर्मवाले हैं, अत एव वहां तुम दोनोंको अवसर नहीं होनेसे उनके साथ तुमः दोनों स्पर्धा नहीं कर सकते ] . 145 //
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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