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________________ 1110 नैषधमहाकाव्यम् / अवकाश हमलोग नहीं देखते हैं। [नल क्षमाशील है, अतः तुम्हें या कलहको उसमें स्थान मिलेगा, ऐसा हमलोग नहीं मानते, ओर इसा प्रकार वह नठ सदा सर्वविय श्रोतस्मात धर्मका पालन करनेवाला है, अतः द्वापर (तुम्हारो सहायता करनेवाले तृतीय युग, या सन्देह ) को स्थान भी मिलेगा, ऐसा हमलोग नहीं मानते। क्षमा करनेवाले में कलह तथा शास्त्र-सम्मत सब धर्म पालनेवाले में सन्देहको अवसर मिलना असम्भ। होनेसे तुम दोनोंका नल के साथ विरोध करनेका प्रयत्न व्यर्थ ही होगा, ऐसा हमलोगोंका विचार है, अतएव तुमलोगोंको ऐसे असत्प्रयत्नका विवार छोड़ देना चाहिये / यद्यपि इन्द्र भविष्यमें होने वाले नलके राजभङ्ग तथा दमयन्तो-विरहको जानते थे तथापि कलिके उत्साहको भङ्ग करने के लिये उन्होंने वैसा कहा, अथवा-'न पश्यामः' ( हमलोग ) नहीं देखते हैं ) ऐसो वर्तमान कालिक क्रियाले निकट भविष्यमें तुम्हें या द्वापरको उक्त गुणवाले नल में अवकाश नहीं होगा ऐसा इन्द्र सूचित कर रहे हैं ] // 143 // . सा विनीततमा भैमी व्यानर्थग्रहैरहो ! / / कथं भवद्विधैर्बाध्या प्रमितिविभ्रमैरिव ? // 144 / / . सेति / किञ्च, विनीततमा अतिशयेन विनम्रा, उपमानपने च-विनीतं निरा. कृतं, तमः अज्ञानं यया सा भ्रमज्ञाननिरासिनीत्यर्थः / सा भैमी दमयन्ती, व्यर्थः निष्फलः अनर्थग्रहः वैराचरणरूपाकार्याभिनिवेशः येषां तादृशः, पक्षान्तरे चव्यर्थो निष्फलः, अनर्थस्य शुक्तौ रजतादेः निष्प्रयोजनस्य, ग्रहो ज्ञानं येषां तादृशः, भवद्विधैः युष्मादृशैः, प्रमितिः प्रमाज्ञानम् , सम्यगनुभूतिरिति यावत् / विभ्रमः मिथ्याज्ञानः इव, कथं केन प्रकारेण, बाध्या बाधितुं पीडयितुं शक्या ? नैव शक्ये. त्यर्थः। अहो ! इत्याश्चर्ये; पातिव्रत्यतेजसो दुर्षत्वादिति भावः // 144 // ' जिस प्रकार (शुक्तिमें रजतज्ञानको दूर करनेवाले) प्रमाशानको ( रजतमें शुक्तिका ज्ञानरूप ) विशिष्ट भ्रम ज्ञान नहीं बाधित कर सकते, उसी प्रकार अतिशय विनम्र उस (दमयन्ती) को व्यर्थ ही वैराचरणरूप दुराग्रहवाले तुम्हारे-जैसे लोग किस प्रकार बाधित (पीड़ित ) कर सकते हैं ? अहो ! आश्चर्य (या-खेद) है। [प्रमात्मक ज्ञानको भ्रमात्मक ज्ञान के समान विनोततम पतिव्रता दमयन्तीको व्यर्थ विरोधाचरणके दुराग्रही तुमलोग नहीं बावित कर सकते, अहो ! आश्चर्य ( या-खेद ) है कि तुमलोग ऐसा दुष्प्रयत्न करना चाहते हो / 'भवद्विधैः' इस बहुवचनान्त पदसे तुम्हारे जैसे अनेक लोग भो उस दमयन्ताको पीडित नहीं कर सकते तो अकेले तुम कैसे कर सकते हो ? अत एव साध्वी दमयन्तोको पीडित (नलसे पृथक्कर दुःखित ) करनेका दुर्विचार तुम्हें छोड़ देना चाहिये ] // 144 // तं नासत्ययुगं तां वा त्रेता स्पद्धितुमर्हति / एकप्रकाशधर्माण न कलिद्वापरौ ! युवाम् / / 145 // तमिति / कलिद्वापरौ ! हे युगविशेषौ !, एकः केवला, प्रकाश उज्ज्वलः प्रसिद्धो
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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