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________________ 760 नैषधमहाकाव्यम् / नियमेनैव इन्द्रियनिग्रहेणैव, तपस्तप्तम् / अन्यत्र तु-अस्य वीरस्य, संज्ञा हस्तादि. चेष्टा, नलेति नाम वा, 'संज्ञाऽर्कभार्या चैतन्यं हस्ताद्यः सूचनाभिधा' इति वैजयन्ती मित्राणां सुहृदां, 'मित्रं सुहृदि मित्रोऽर्के' इति विश्वः, प्रियोपजननम् इष्टसम्पादन प्रति हेतुः श्रुता; अयं कस्य जनस्य सुहृत् सखा, न ? अपि तु सर्वस्येव सुहृत् , अस्ये एक छाया कान्तिः, 'छाया सूर्यप्रिया कान्तिः' इत्यमरः, कुत्रचित् छापि पुरुषान्तरे, न अध्यगामि न अधिगता, अमुना नलेन, यमेन नियमेन च यमनियमाभ्यां, सपस्तप्तमेव, अन्यथा कथमयं महिमेति भावः // 16 // __ यमपक्षमें-'संज्ञा' नामसे प्रसि : सूर्यको प्रिया ( स्त्री) इसकी उत्पत्तिके प्रति कारण है अर्थात् सूर्यप्रिया 'संशा' देवी इसकी माता है। यह 'यम' किसके प्राणोंको हरण नहीं करता ? अर्थात् सबके प्राणोंको हरण करता है। 'छाया' नामसे प्रसिद्ध सूर्यप्रिया कहीं ( किसी शास्त्रमें ) भी ऐसी ( इसको उत्पत्तिका कारण अर्थात् माता ) नहीं सुनी गयो है अर्थात् सूर्यकी 'संज्ञा' तथा 'छाया' नामक दो पत्नियों में 'संशा' ही इसकी माता कही गयी है 'छाया' नहीं / इन्द्रिय-निग्रहसे इसीने तप किया है अत एव इसका 'धर्मराज' नाम सार्थक है / [ यहां पर 'यम' को सरस्वती देवीने सबका प्राणहरण करनेवाला कहकर उसे वरण करनेके अयोग्य होनेका सङ्केत दमयन्तीसे किया है ] / नलपक्षमें-सुना गया इसका नाम मित्रों के प्रियोत्पत्तिके प्रति कारण है ( अथवाइसका नाम मित्रों के प्रियोत्पत्तिके प्रति कारण सुना गया है) अर्थात् इस 'नल' के नाम सुननेसे मित्रोंका प्रिय होता है / यह किस आदमीका मित्र नहीं है ? अर्थात् सर्वप्रियकारक होनेसे यह सभीका मित्र है। इसकी ऐसी छाया (शरीरशोभा अथवा-शासन-प्रणाली या दयादाक्षिण्यादि गुण ) कहीं (किसी व्यक्तिमें ) भी नहीं मिलती, इसीने यम (ब्रह्मचर्यादि ) तथा नियम ( नक्तव्रतोपवासादि ) के द्वारा ( तुम्हारी प्राप्ति के लिए ) तप किया है, अत एव तुम्हें इसका वरण करना चाहिये ( अथवा' 'के द्वारा तप किया है, अतः इसकी इतनी बड़ी महिमा है ) // 16 // किञ्च प्रभावनमिताखिलराजतेजा देवः पिताऽम्बरमणी रमणीयमूर्तिः। उत्क्रान्तिदा न कमनु प्रतिभाति शक्तिः ? कृष्णत्वमस्य च परेषु गदानियोक्तः / / 17 / / किञ्चेति / किञ्च प्रभाभिः अवनमितम् अधःकृतं, अखिलं राज्ञः चन्द्रस्य, तेजो येन सः, रमणीयमूर्तिः देवः अम्बरमणि. सूर्यः, 'ठूलोपे पूर्वस्य दीर्घोऽणः' अस्य पिता, अस्य शक्तिः कासूनामायुधं, कमनु के जनं प्रति, उत्क्रान्तिदा प्राणोरक्रमणप्रदा, न प्रतिभाति ? अपि तु प्रतिभात्येव परेषु अन्येषु, गदान् रोगान् , नियोक्तुः कर्मविपाकानुसारेण प्रेरयितुः, तृन्नन्तत्वात् 'न लोका- इत्यादिना पष्ठीप्रतिषेधात् कर्मणि
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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