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________________ त्रयोदशः सर्गः। 786. इति मेदिनी, न म्रियते मृतप्रायो न भवतीत्यमरः, पचाद्यच , कश्चिदस्ति खलु ? अपि तु न कोऽपि अमरोऽस्ति, सर्वे एव मृतप्राया भवन्तीत्यर्थः, अन्यत्र च-तादृशशरीरकान्तिभिरुपलक्षितः, अमरः देवः, कश्चिदस्ति खलु ? अपि तु न कोऽप्यस्ति, देवेषु सुन्दरतमयोस्तयोजितत्वादिति भावः // 15 // यमपक्षमें-यह ( पुरःस्थित पुरुष 'यम' ) दण्ड (अपना शस्त्र-विशेष, पक्षा०-छड़ी) धारण करता है, उस ( के भय ) से कम्पनाकुलित (व्याकुल होकर कम्पायमान ) सम्पूर्ण संसारका पङ्कमें पतन नहीं होता अर्थात् इसके दण्डके भयसे कम्पमान संसार पापमें प्रवृत्त नहीं होता ( पक्षा०-कीचड़में नहीं गिरता ) आश्चर्य है [ जो छड़ी ग्रहण करता है वहीं व्यक्ति कीचड़में गिरने से बचता है; किन्तु इसके छड़ी ग्रहण करनेसे दूसरेका कीचड़में नहीं गिरना आश्चर्यजनक है ] / स्वर्गके वैद्यद्वय अर्थात् अश्विनीकुमारों के भी ( चिकित्सासम्बन्धी, पक्षा०-सौन्दर्यसम्बन्धी ) मदको नष्ट करनेवाले इसके रोगोंसे कोई ( व्यक्ति) अमर (मरणसे बचा हुआ) है ? ( पक्षा०-इसकी कान्तिके समान कोई देवता है ? ) अर्थात नहीं / [ अन्यान्य रोगों की चिकित्सा तो वैद्यमात्र करके रोगीको रोगसे बचा लेते हैं, किन्तु यमके रोग अर्थात् मृत्युसे स्वर्गवैद्य अश्विनीकुमार भी किसी व्यक्तिको नहीं बचा सकते फिर अन्य वैद्योंकी बात ही क्या है ? ] / नलपक्षमें-यह ( पुरःस्थित 'नल' ) दण्ड धारण करता है अर्थात् अपराधीको दण्डित करता है ( अथवा-सेना धारण करता है ), उससे कम्पाकुल सम्पूर्ण संसार पापकर्ममें नहीं गिरता अर्थात् 'यह नल अपराध करनेपर हमें दण्डित करेगा' इस भयले कांपता हुआ संसारमें कोई भी व्यक्ति या शत्रु अपराध नहीं करता। अश्विनीकुमारोंके भी ( सौन्दर्य) मदको नष्ट करनेवाली इसकी ( शरीर ) शोभाके समान कोई देव भी है क्या ? अर्थात् कोई देव भी इस नलके समान सुन्दर नहीं है [ यहां तक कि देवोंमें सर्वसुन्दर अश्विनीकुमारोंका भी सौन्दयंमद इसकी शरीर-कान्तिको देखकर नष्ट हो जाती है, फिर मनुष्यों में इसके समान !कसीका सुन्दर होना कैसे सम्भव है ? ] // 15 // मित्रप्रियोपजननं प्रति हेतुरस्य संज्ञा श्रतासुहृदयं न जनस्य कस्य ? | छायेर स्य च न कुत्रचिदध्यगामि तप्तं यमेन नियमेन तपोऽमुनैव / / 16 / / मित्रेति / संज्ञा संज्ञादेवीति, श्रुता प्रसिद्धा, मित्रप्रिया अर्कदयिता, अस्य यमस्य, उपजननम् उत्पत्ति, प्रति हेतुः कारणं, जननीत्यर्थः; अयं यमः, कस्य जनस्य असून् हरतीति असुहृत् प्राणहरः, न ? सर्वस्यैवासुहृत् सर्वान्तकत्वादिति भावः; छाया च छायाख्या मित्रप्रिया च, अस्य यमस्य, ईदृक ईदृशी, उत्पत्तिहेतुर्जननीत्यर्थः, इति कुत्रचित् कापि शास्त्रे, नाध्यगामि न अधिगता, सूर्यस्य द्वे भार्ये संज्ञा छाया च, तत्र संज्ञैव अस्य जननीति श्रयते न छायेत्यर्थः; यमेन यमाख्येन, अमुना 1. 'दध्यगायि' इति पाठान्तरम् /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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