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________________ 1230 नैषधमहाकाव्यम्। उसके योग्य वस्तुको दूसरेके लिए देता है तो वह प्रथम उपकार करनेवाला व्यक्ति उपकृतसे रुष्ट होकर उसके पास तक नहीं जाता। नल तथा दमयन्तीने सम्पूर्ण रात्रिको कामक्रीड़ा करने में व्यतीत किया ] // 145 // ईदृशं निगदति प्रिये दृशौ सम्मदात् कियदियं न्यमीमिलत् / ' प्रातरालपति कोकिले कलं जागरादिव निशः कुमुदती || 146 / / ईदृशमिति / प्रिये नले, सम्मदात् सन्तोषात् , यथेष्टसम्मोगसुखानुभवजनिता. नन्दादित्यर्थः / ईदृशम् ईदृक् वाक्यम् , निगदति कथयति सति, तथा प्रातः तदा निशावसानात् उपसि, कोकिले पिके, कलं मधुरास्फुटं यथा तथा, आलपति कूजति च सति, निशः रात्रेः सम्बन्धिनः, जागरात् जागरणात हेतोः, कुमुदपक्षे-रात्री प्रस्फुटनात् , अन्यत्र-सुरतव्यापारेण निद्रापरिहारादित्यर्थः / कुमुद्वतीव कुमुदलतेव कुमुदमिवेत्यर्थः / इयं भमी, कियत् किञ्चित् , दृशौ नेत्रे, न्यमीमिलत् निमीलि. तवती, 'भ्राजभास-' इत्यादिना विलल्पादुपधाहस्वः, 'दी? लघोः' इत्यभ्यास. दीर्घः // 146 // इस ( दमयन्ती ) ने अत्यधिक हर्षसे प्रिय (नल ) के इस प्रकार (14 / 138-145) कहते रहनेपर तथा प्रातःकाल कोयलके मधुर बोलते रहनेपर रात्रिमें जगने (पक्षाविकसित रहने ) से कुमुदिनीके समान नेत्रोंको कुछ बन्द कर लिया [ अथवा-इस दमयन्तीने प्रिय नलके इस प्रकार कहते रहनेपर और प्रातःकाल कोयलके मधुर बोलते रहनेपर सुरतजन्य अत्यधिक हर्ष अर्थात् श्रमसे........ / अथवा "इस दमयन्तीने प्रिय नलके इस प्रकार कहते रहनेपर प्रातःकाल में कोयलके मधुर बोलते रहनेपर रात्रिमें (विकसित रहने के कारण ) जागरण करनेसे कुमुदतीके समान नेत्रोंको अर्द्धनिमीलित कर लिया अर्थात् रातभर जागनेसे दमयन्ती कुछ-कुछ सोते समय नेत्रोंको बन्द किया तो वह रातभर विकसित रहकर प्रातःकाल बन्द होते समय कुछ सङ्कुचित पंखुड़ियोंवाली कुमुदिनीके समान सुन्दर जान पड़ती थी। इससे नलके स्वरका कोकिलके समान मधुर होना तथा दमयन्तीकै नेत्रों के पलकोंका कुमुदिनीके पंखड़ियों के समान सुन्दर होना सूचित होता है ] // मिश्रितोरु मिलिताधरं मिथः स्वप्नवीक्षितपरस्परक्रियम् / तौ ततोऽनु परिरम्भसम्पुटे पीडनां विदधतौ निदद्रतुः / / 147 / / मिश्रितेति / ततः दमयन्त्याः हनिमीलनात , अनु पश्चात् , तौ भैमीनलौ, मिथः परस्परम् , मिश्रितौ संश्लिष्टौ, ऊरू द्वयोः सक्थिनी यस्मिन् तद्यथा तथा, मिलितौ स्पृष्टी, अधरौ रदनच्छदौ यस्मिन् कर्मणि तत् यथा तथा, स्वप्ने वासनावशात् निद्राकालिकविषयानुभवे, वीक्षिताः दृष्टाः, परस्परक्रियाः अन्योऽन्यं चुम्बनादि. व्यापारा यस्मिन् तत् यथा तथा च, परिरम्भसम्पुटे आलिङ्गनरूपपुटके, पीडनां 1. 'न्यमीलयत्' इति पाठान्तरम् /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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