________________ 138 नैषधमहाकाव्यम्। भूलोकवासी कामदेव यह युवक (नल ) दमयन्तीके बहुत जन्मों में की गयी तपस्याके शिल्प ( कारीगरी) रूप देहशोमासे हमारे नेत्रोंको रुचता है, वह नल देवालय ( स्वर्ग ) के चक्रवती ( इन्द्र ) के पुण्याधिक्यसे भी अप्राप्य भीमजा ( राजा भीमकी कन्या दमयन्ती, पक्षा०-भीम = शिवजीके प्रसादसे प्राप्त विद्या-विशेष ) से युक्त होकर तेजःसमूहके अद्वैत' ( अधिक कान्ति-समूह, पक्षा०-परमात्मा) को प्राप्त करे। (ऐसा 'नलको देखनेवाली स्त्रियोंने कहा' इस क्रियापूरक वाक्यका अध्याहार अग्रिम श्लोक (15 / 92 ) से करना चाहिये ) [ पहले कामदेव स्वर्गमें रहता था एवं शरीरहीन था, किन्तु वही दमयन्तीके अनेक जन्मकृत तपस्याओंसे सदेह होकर भूलोकमें वास करनेवाला यह युवा नल हो गया है, ऐसा यह नल देवलोकके चक्रवर्ती बनने के कारण अधिक पुण्यशाली इन्द्र भी जिस दमयन्तीको पूर्वकृत अपने पुण्योंसे नहीं पा सका उस दमयन्तीका योग पाकर आज सर्वाधिक कान्तिमान् होवे / देवलोकवासी तथा अशरीरी कामदेवको भूलोकवासी तथा सशरीर बनाकर युवक नलके रूपमें हमलोगों के सामने उपस्थित करनेसे दमयन्तीका पुण्याधिक्या तथा जिस पुण्यसे स्वर्गका चक्रवर्ती बननेवाला इन्द्र भी दमयन्तीको नहीं पा सका और इस नलने उसे पा लिया अतएव इन्द्रकी अपेक्षा नलका पुण्याधिक्य सूचित होता है। लोकमें भी तपोबलसे युक्त व्यक्ति स्वर्गवासी अदेहधारी देवको भूलोकवासी एवं देहधारी मनुष्य बना लेता है, ऐसा दमयन्तीने किया है / तथा अष्टाङ्ग योगको करके बहुत तपसे अप्राप्य भी विद्याको शिवजीके प्रसादसे प्राप्तकर कोई महापुण्यशाली व्यक्ति अद्वैत परमात्माको भजता है, वैसा नल भी करे / दमयन्ती तथा नल-दोनोंके ही पूर्व जन्मार्जित पुण्य अत्यधिक हैं, अतएक इनका सम्बन्ध बहुत उत्तम हुआ ] // 87 // स्त्रीपुंसव्यतिषञ्जनं जनयतः पत्युः प्रजानामभू दभ्यासः परिपाकिमः किमनयोर्दाम्पत्यसम्पत्तये ? | आसंसारपुरन्ध्रिपूरुषमिथःप्रेमाणक्रीडयाऽ. प्येतजम्पतिगाढरागरचनात् प्राकर्षि चेतोभुवः / / 88 // . स्त्रीपुंसेति / स्त्री च पुंमांश्च स्त्रीपुमांसौ 'भचतुर-' इत्यादिना निपातनात साधुः / तयोः व्यतिषानं जनयतः सङ्घटनं कुर्वतः, प्रजानां पत्युः स्रष्टः, परिपाकेण निवृत्तः परिपाकिमः परिपक्वः इत्यर्थः, 'भावप्रत्ययान्तादिमा वक्तव्यः' इति इमपप्रत्ययः / अभ्यासः पुनः पुनः स्त्रीपुंससंयोजनकरणरूपावृत्तिः, अनयोः नलदमयन्त्योः, दाम्पत्यस्य जायापतित्वस्य, सम्पत्तये सम्पादनाय, अभूत् किम् ? नो चेत् तस्य कथमी. दृगनुरूपसङ्घटकत्वमिति भावः / तथा अभ्यासं विना कथम् ईडगन्योऽन्यानुरागजननचातुरीभावः ? इति तात्पर्यम् / किञ्च, चेतोभुवः कामस्य अपि, आसंसारं संसारम् आरभ्य अभिविधावव्ययीभावः / पुरन्ध्रिपूरुषयोः स्त्रीपुंसयोः, मिथः अन्योsन्यं, प्रेम्णोऽर्पणम् अनुरागोत्पादनम् एव, क्रीडा तयाऽपि, एतजम्पत्योः एतयोर्नल.