________________ पञ्चदशः सर्गः। 637 नहीं जाननेवाली मत जानो; (क्योंकि ) सुप्रसिद्ध इस ( दमयन्ती ) ने इन्द्र के द्वारा अपनेको दूसरी इन्द्राणी नहीं बनवाया ( अर्थात् इन्द्रको यदि यह वरण करती तो वह इसे दूसरी इन्द्राणी बना लेता) यह अच्छा लिय।। (हर्षे ( पाठा०-स्वर्ग) से कीर्ति श्रेष्ठ इस कारण है कि-) इन्द्राणीके चरितके विषयमें (चरितका आश्रयकर ) किस ( कवि ) ने काव्य ( एक भी काव्य ) को रचा ? यह हमसे कहो अर्थात् किसी एक कविने भी इन्द्राणीका चरित वर्णन करने के लिए एक भी काव्य नहीं बनाया और इसके विपरीत इस ( दमयन्ती ) रस-नदी-प्रवाहरूप चरितमें अर्थात् चरितका आश्रय लेकर कौन-से कवि काव्यकी रचना नहीं करेंगे अर्थात् केवल 'श्रीहर्ष कवि ही 'नैषध' महाकाव्यको रचना नहीं करेंगे, किन्तु व्यास आदि प्राचीनतम महाकवि भी महाभारत आदि काव्योंमें इस दमयन्तीके चरितका वर्णन करेंगे ( 'ऐसा नलको देखनेवाली स्त्रियोंने कहा' ऐसे क्रियापूरक वाक्यका अग्रिम श्लोक ( 15 / 92 ) से अध्याहार करना चाहिये ) / [ दमयन्तीने सोचा कि यदि मैं इन्द्रका वरणकर दूसरी इन्द्राणी बन भी जाती हूँ तो मुझे स्वर्ग-सुखजन्य प्रसन्नता तो अवश्य मिल जायेगी, किन्तु नळके वरण करनेसे होनेवाली कीर्ति नहीं मिलेगी, अत एव स्वर्गसुखजन्य प्रसन्नताकी अपेक्षा कीर्तिको ही श्रेष्ठतर मानकर दमयन्तीने इन्द्रका त्यागकर नलका वरण किया यह बहुत पाण्डित्यपूर्ण कार्य किया है। उसका ऐसा सोचना इस कारण उचित है कि इन्द्राणी के चरितका वर्णन करनेके लिए आज तक किसी एक कवि ने भी कोई काव्य नहीं बनाया. और पुण्यश्लोक नलके वरण करनेसे इसके चरितका वर्णन न्यास आदि बहुतसे कवि महाभारतादि महाकाव्योंमें करेंगे, इस कारण इस दमयन्तीके समान दूरदर्शिनी विदुषर्षी कोई दूसरी स्त्री नहीं है // 86 // वैदभाबहुजन्मनिर्मिततपःशिल्पेन देहश्रिया नेत्राभ्यां स्वदते युवाऽयमवनीवासः प्रसूनायुधः / गीर्वाणालयसार्वभौमसुकृतप्राग्भारदुष्प्रापया योगं भीमजयाऽनुभूय भजतामद्वैतमद्य त्विषाम् / / 8 / / वैदर्भाति / अवन्यां वासः यस्य सः तादृशः, प्रसूनायुधः पुष्पेषुः, भूलोकमन्मथः इति यावत्, अयं युवा नलः, वैदाः दमयन्त्याः , बहुषु जन्मसु निर्मितेन कृतेन, तपसा तपस्यालब्धेनेत्यर्थः, शिल्पेन कलाकौशलेन, दमयन्तीतपःफललब्धकलाकौशलस्वरूपयेत्यर्थः, देहश्रिया कायकान्त्या, नेत्राभ्यां स्वदते रोचते, पश्यन्तीनामस्माकं नेत्रानन्दं करोतीत्यर्थः,'रुच्यर्थानां प्रीयमाणः' इति चतुर्थी / अत एव गीर्वाणा. लयसार्वभौमसुकृतप्राग्भारैः नाकनायकपुण्यराशिभिः अपि, दुष्प्रापया दुर्लभया, इन्द्रादिभिरपि दुरधिगम्यया इत्यर्थः, भीमजया भैग्या सह, योगं मिलनम्, अनुभूय अद्य विषां कान्तीनाम्, अद्वैतम् अद्वितीयत्वम्, असाधारण्यमित्यर्थः, भजतां गच्छतु अयं युवेति पूर्वेणान्वयः॥ 87 //