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________________ द्वाविंशः सर्गः। 1567 पुरुष नहीं, अपितु स्त्री) तुमसे पराजित होनेपर मलिन होना उचित ही है। यहां भी कल्पान्तरकी अपेक्षासे ही रावणको नलका पूर्ववर्ती होना समझना चाहिये ] // 129 // __ पौराणिक कथा-दिग्विजयोद्यत रावण जब चन्द्रमाको पराजित करने गया, तब तुषाराग्निसे जलता तथा ठण्ढकसे कॉपता हुआ वह चन्द्रमाको बिना पराजित किये ही वापस लौट आया। यह कथा वाल्मीकीय रामायणके उत्तरकाण्डमें है। दृष्टो निजां तावदियन्त्यहानि जयनयं पूर्वदशां शशाङ्कः / पूर्णस्त्वदास्येन तुलां गतश्चेदनन्तरं द्रक्ष्यसि भङ्गमस्य // 130 // दृष्ट इति / अयं शशाङ्क इयन्त्येतावन्ति अहानि शुक्लपक्षदिनानि तावदवधी. कृत्य निजां पूर्वदशां पूर्वपूर्वदिनावस्थां जयन् निकाममुत्तरोत्तरदिनेषु कलावृद्धयाधि. कीभवंस्त्वया दृष्टः। इयन्ति दिनानि जयंस्तावत् जयन्नेव दृष्ट इत्यवधारणार्थो वा 'तावत्'शब्दः / अनयैव परिपाट्या पूर्नबिम्बोऽयं त्वदास्येन सह तुलां साम्यम्, अथ च-तोलकाष्टं, प्राप्त आरूढश्चेत् , त_नन्तरं निकटं त्वमेव श्वःप्रभृत्येवास्य भङ्गं पराजयं कलाक्षयं च द्रश्यसि / उत्तमेन सह स्पर्धमानो हि भङ्गं प्राप्नोस्येव / तुला. दिव्ये हि हीनस्य पराजयः सर्वैश्यते। अहानि अत्यन्तसंयोगे द्वितीया। स्वदास्येन, '-अतुलोपमाभ्याम्-' इति निषेधेऽपि सहयोगे तृतीया / तथा च कालिदासः "तुला यदारोहति दन्तवाससा' इत्यादि // 130 // इतने दिनों ( शुक्लपक्षके दिनों अर्थात् पूर्णिमा ) तक जीतता (1-1 कलाके क्रमशः बढ़नेसे उत्तरोत्तर वृद्धिको प्राप्त होता) हुआ तथा ( तुमसे ) देखा गया यह चन्द्रमा यद्यपि तुम्हारे मुखकी समानताको प्राप्त कर लिया अर्थात् इस समय कथञ्चित् तुम्हारे मुखके समान हो गया, तथापि ( तुम ) इसके बाद ( कृष्णपक्षके दिनों ) में इसके भङ्ग (पराजय, पक्षा०-कलाक्षय ) को देखोगी। [ प्रबल के साथ विरोधकर्ताका पराजय अवश्य होता है; यह बात महाकवि 'भारवि'ने भी 'किरातार्जुनीय' काव्यमें कही है-यथा-'अहो दुरन्ता बलवद्विरोधिता' (123)] // 130 / / क्षत्राणि रामः परिभूय रामाक्षत्रााथाभज्यत स द्विजेन्द्रः। तथैष पद्मानभिभूय सर्वोस्त्वद्वक्त्र पद्मात्परिभूतिमेति / / 131 / / क्षत्राणीति / द्विजेन्द्रो जमदग्न्यपत्यत्वात्सोऽतिप्रसिद्धपराक्रमो रामः परशुरामः सर्वाणि क्षत्राणि परिभूयापि क्षत्रादेव रामाद्दाशरथेः सकाशाधथा भज्यत पराभवं प्राप, तथा तेनैव प्रकारेणायमपि द्विजराजः सर्वान्पद्मानभिभूय संकोचकरणात्पराभूयापि स्वद्वक्त्रपद्मात्सकाशात्परिभूतिं पराभवमेति / सकलक्षत्रियाधिक्यं यथा श्रीरामस्य तथा सर्वपदाधिक्यं त्वन्मुखपद्मस्येति भावः / 'वा पुंसि पनम्' इत्यमरः // 13 // (जमदग्नि-पुत्र होनेसे) द्विजेन्द्र (ब्राह्मण) परशुरामजी जिस प्रकार क्षत्रियोंको पराजितकर क्षत्रिय रामचन्द्रजीसे पराजित हुए, उसी प्रकार यह द्विजेन्द्र (द्विजराज%
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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