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________________ 780 नैषधमहाकाव्यम् / भूते, हे घटप्रमितकुचे ! समिति संयति, भूमीभृतः पर्वतान् , जिष्णुं जेतारम् ‘न लोका-' इत्यादिना पष्ठीप्रतिषेधात् कर्मणि द्वितीया अविद्यमानः पवेः वज्रस्य, अपायो यस्य तम् अपव्यपायं नित्यवज्रहस्तम् , अमुं वीरं, कथञ्चित् अपि अमवन्तं मघवत इन्द्रादन्यं, न तु जानीहि नैव विद्धि, इन्द्रमेवा, विद्धि इत्यर्थः / इन्द्रश्चेदक्षिसहस्रं क्व गतम् ? तत्राह, गुप्त नलरूपधारणार्थमेव निगृहितम् , अतिशयम अद्भुतम् एतदीयं बाहुनेत्र बहुनेत्रत्वम् युवादित्वादण्-प्रत्ययः नालोकसे न पश्यसि। अन्यत्र तु-समिति भूमिभृतो राज्ञः, जिष्णुं जेतारम् , अपव्यपायम् अपगतः व्यपायः रणात् पलायनं यस्य तं रणादपलायमानम् , असुं वीरं नलं, त्वं कथञ्चिदपि अघवन्तं पापवन्तं, न जानीहि, पुण्यश्लोकत्वादस्येति भावः / गुप्तं रक्षितम्, अक्षतम् इत्यर्थः, बहूनां नेता तस्य भावस्तं बाहुनेनं राजाधिराजत्वं, पूर्ववदण-प्रत्ययः हे दमयन्ति ! नालोकसे किम् ? इति काकुः / अन्यत् समानम् // 5 // इन्द्रपक्षमें-'बल' ( नामक दैत्य ) से बलबान् ( या-श्रेष्ठ बलवाले ) इसने अत्युन्नत तथा कठोर शरीरवाले और अत्यन्त दर्पयुक्त सिंहों तथा हाथियोंवाले पर्वतोंके पलोंको काटकर . आपत्ति रूपी समुद्र में डूबते हुए संसार का उद्धार किया है / पौराणिक कथा--पूर्वकालमे पङ्खसहित होनेसे उड़नेवाले पर्वत जहां बैठते थे, वहां का विशाल भूभाग उनके नीचे दबकर नष्ट हो जाता था, अतः देवोंकी प्रार्थनासे इन्द्र ने उन पर्वतों का पक्ष काटकर उन्हें 'अचल' उना दिया और संसार को बचा लिया / नलपक्षरों-अतिशय बलवान् ( अथवा-अधिक सेनावाले ) इसने अतुलनीय अर्थात् अनुपम श्वेत घोड़ों को मारनेवाला शरीर (या विरोध ) है जिनका ऐसे तथा अतिशय दर्पयुक्त करोड़ों घोड़ों एवं हाथियोंका धारण करनेवाले राजाका पक्ष ( सहायकों ) का नाश करके ( शत्रुकृत ) आपत्ति-समुद्र में डूबे हुए संसारका उद्धार किया है। इन्द्रपक्षम-हे घड़ेके प्रतिद्वन्दी अर्थात् समान ( विशाल ) स्तनोवाली ( दमयन्ति ) ! तुम संग्राममें पर्वतों के विजयी तथा वज्रके अभावसे रहित अर्थात् सदा वज्र धारण करनेवाले इसे किसी प्रकार इन्द्रभिन्न मत जानो अर्थात् इन्द्र ही जानी / [ 'इस इन्द्रने अपने सहस्र नेत्रोंको छिपा लिया है, अतः उनके दृष्टिगोचर नहीं होने से इन्द्रभिन्न ( नल ) मत समझो इस बातको सरस्वती उत्तरार्द्धले स्पष्ट करनी है ] विस्तृत ( अथवा-तलहत्थीमें नहीं होने. वाले, अथवा-अत्यन्त ) आश्चर्यकारी गुप्त बहुनेत्रत्व ( अथवा-बहुनेत्र-समूह ) को नहीं देखती ( या-कथश्चित् नहीं देखती ) हो। ( अथवा-इसके बहुत नेत्रोंवाले अतिशयको नहीं देखती हो, यह आश्चर्य है / अथवा--इसके बहुत नेत्रोंवाले आश्चर्य कारक अतिशयको किसी प्रकार नहीं देखती हो)। __ नलपक्ष में-हे घटके प्रतिद्वन्द्वी स्तनोंवाली ( दमयन्ति ) ! तुम युद्ध में शत्रुओं के विजयी, ( युद्धसे ) नहीं भगनेवाले इसे किसी प्रकार सदोष मत जानो। इसके सुरक्षित अर्थात अक्षण आश्चर्य कारक, विशिष्ट बहुनेतृत्व ( बहुतों के नेता होनेके भाव अर्थात् राजाधिराज
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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