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________________ त्रयोदशः सर्गः। कमशः इन्द्र, अग्नि, यम और वरुण का वर्णन बाद में किया गया है। अन्तमें 'देवः पतिः' (13.34 ) इस एक श्लोकसे ही क्रमशः इन्द्र, अग्नि, यम, वरुण और नल इन पांचोंका वर्णन किया गया है ] // 3 // शुभ्रांशुहारगणहारिपयोधराङ्कचुम्बीन्दचापग्बनितामणिप्रभाभिः / अन्यास्यते समिति चामरवाहिनीभिर्यात्राम चैष बहलाभरणार्चिनाभिः।। शुभ्रेति / एष वीरः, इन्द्रनलयोः सामान्यनिर्देशेऽपि अत्र इन्द्र इत्यर्थः, शुभ्रशुः चन्द्रः, हरस्येमे हाराः, गणाः प्रमथाः, हरस्यापत्यं पुमान् हागिः स्कन्दः; पयोधग. चुम्बिना मेघोत्सङ्गसङ्गिना, इन्द्रवापेन खनिताः मिश्रिताः, ग्रमणिप्रभाः सूर्य तेजांसि पत्र तादृशीभिः, बहुरनेकः, लाभः त्रिलोकविजयादिः यस्मिन् तादृशे रणे अचिताभिः पूजिताभिः, अर्च पूजायां कर्मणि क्तः अमरवाहिनीभिः सुरसेनाभिः, ममिति रणे च, युद्धक्षेत्रे च इत्यर्थः, यात्रासु रणयात्रासु. च, अन्वास्यते अनुगम्यते उपास्यते च / अन्यत्र तु-एषः नलः, शुभ्रांशुभिः उज्ज्वलमयूखैः, हारगणैः मुक्ताहारजालैः, हारिपयोधराङ्कचुम्बिभिः मनोहरकुचोत्सङ्गसङ्गिभिः, इन्द्रचापैः तत्तल्यविविधवर्णः विशिष्ट भूपगदीप्तिभिरित्यर्थः खचिता मिश्रिताः, द्यमणेः सूर्यस्य, सूर्यकान्तमणेरि. त्यर्थः प्रभाः यासां तादृशीभिः, बहुलैः आभरणः अलङ्कारः, अर्चिताभिः भूषिताभिः, चामरवाहिनाभिः चामरधारिणीभिः, समिति सभायां, यात्रासु देवतामहोत्सवेषु च, अन्वास्यते // 4 // इन्द्रपक्ष में युद्ध में तथा यात्राओं ( विलासयात्राओं, या दण्ड यात्राओं ) में चन्द्रमा, शिवजी के गण ( प्रमथ आदि ग्यारह, या नन्दी आदि ), शिव-पुत्र ( स्कन्द या गणेश जी) तथा मेघ के ( स्वामी होनेसे ) मध्यवर्ती जो इन्द्र उनके धनुष से खनन ( मिश्रित या बद्व ) सूर्य कान्तिवाली तथा बहुत लाभवाले युद्व में पूजित ( अथवा-दंत्य-विजय करने में अधिक कान्तिसे पूजित ) देवसेन। इसके पीछे चलती है / ( अथवा-युद्ध में .. .. शिव नाके गण का हरण करने ( अपने साथ ले चलने ) वाले अर्थात् शिवजीके गगसे युक्त मंघ......। अथवा-युद्ध में ... ...वजीके गणसे मनोहर मेघ के मध्यगत इन्द्र धनुषस खानत ..... / अथवा-उक्त प्रकारके इन्द्रधनुषसे अ.काशमें वृद्धिगत सूर्यकान्तवाली...."। अथवा-युद्ध में चन्द्र आदि तथा इन्द्रधनुष से आकाशमें वृद्धिङ्गत..." ) / नलपक्षमें-सभामें तथा उत्सव-सम्बन्धिनी यात्रा में शुभ कान्तिवाले मुक्ताहारसे सुन्दर वक्षःस्थलपर इन्द्रधनुषखचित सूर्य प्रभाके समान प्रभावाला तथा बहुत आभरोसे अलकृत चामरधारिणी अङ्गनाएं इसकी सेवा करती हैं // 4 // भूमीभृतःसमिति जिष्णुमपव्यपायं जानीहि न त्वमघवन्तममु कथावत / गुप्तं घटप्रतिभटस्तनि ! बाहुनेत्रं नालोकसेऽतिशयमद्भुतमतदीय / / . भूमीति / घटप्रतिभटस्तनि ! घटस्य प्रतिभटौ प्रतिस्पर्द्धिनौ, स्तनौ यस्यास्तथा 46 नै० उ०
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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